मतला:
मतला से मक़ता तक एक सिलसिला चला,
उनके हुस्न का हर बयाँ ग़ज़ल हो चला।
मिसरा-ए-उला और मिसरा-ए-सानी का जादू देखो:
ज़ुल्फ़ों की गिरह में उलझते रहे शेर,
लब ने जो छेड़ा, बयाँ ग़ज़ल हो चला।
रदीफ़-काफ़िया का हुस्न:
आँखों में साक़ी का अंदाज़ भी था,
हर जाम में इक समां ग़ज़ल हो चला।
बहर की नज़ाकत और हुस्न की शोख़ी:
रुख़्सार पे शोले, लबों पर गुलाब,
हर रंग में इक नशा ग़ज़ल हो चला।
तखय्युल का जादू:
ख़ुशबू में लिपटा था हर इक हर्फ़ जैसे,
लिखते ही वो दास्ताँ ग़ज़ल हो चला।
हुस्न-ए-मक़ता (तखल्लुस के साथ):
'वृहद' उनकी नज़र से जो उतरा क़लाम,
महफ़िल में फिर बेग़ुमाँ ग़ज़ल हो चला।
Version 2:
मतला (पहला शेर):
मुरव्वत-ए-शाक़ी का फ़ुग़ाँ, ग़ज़ल हो चला
उनके भीगे बदन का नशा, ग़ज़ल हो चला
(मुरव्वत = मेहरबानी; शाक़ी = शराब परोसने वाला; फ़ुग़ाँ = आह, कराह)
1
मतला से मक़ता तक एक सिलसिला चला
उनके हुस्न का हर बयाँ, ग़ज़ल हो चला
(हुस्न = सौंदर्य; बयाँ = वर्णन)
2
लब थे उनके मिसरा-ए-सानी ओ उला,
हर इक सुख़न की दुआ, ग़ज़ल हो चला
(लब = होंठ; मिसरा-ए-सानी/उला = शेर की दूसरी/पहली पंक्ति; सुख़न = कविता/शब्द)
3
आँखों में साक़ी के जलवे थे जैसे,
हर जाम का कारवां, ग़ज़ल हो चला
(साक़ी = शराब परोसने वाला; जलवे = चमक, सौंदर्य; जाम = प्याला; कारवां = काफ़िला)
4
ख़ुशबू में लिपटा था हर इक हर्फ़ जैसे,
हर क़िस्सा-ए-नग़मा, ग़ज़ल हो चला
(हर्फ़ = अक्षर; क़िस्सा-ए-नग़मा = गीत की कहानी)
5
रुख़्सार पे जो फैली थी लाली सुब्ह-ए-चमन,
हर गुल का रंग-ए-फ़ना, ग़ज़ल हो चला
(रुख़्सार = गाल; सुब्ह-ए-चमन = बाग़ की सुबह; फ़ना = मिट जाना, लय हो जाना)
6
लटों में उनके उलझते रहे यूँ ही अश'आर,
घटाओं की रौ, इक सदा, ग़ज़ल हो चला
(लटें = बाल; अश'आर = शेर; रौ = बहाव, प्रवाह; सदा = आवाज़)
7
बहर दर बहर बहे अश'आर इस क़दर,
बज़्म-ए-सुख़न का जहाँ, ग़ज़ल हो चला
(बहर = छंद, मीटर; बज़्म-ए-सुख़न = कविता की सभा)
8
रदीफ़-ओ-क़ाफ़िए की शोख़ियाँ थीं जनाब,
रक्स में बलखाता समाँ, ग़ज़ल हो चला
(रदीफ़ = दोहराया जाने वाला अंतिम शब्द; क़ाफ़िया = तुकांत; शोख़ियाँ = चंचलताएं; रक्स = नृत्य)
9
तासीर-ए-तख़य्युल-ओ-तसव्वुर, की थी जो रंगत,
तस्वीर-ए-नज़्म का सफ़्हा, ग़ज़ल हो चला
(तासीर = असर; तख़य्युल = कल्पना; तसव्वुर = सोच, कल्पना की छवि; नज़्म = कविता; सफ़्हा = पन्ना)
10
चलने का था अंदाज़, ठहरने की थी अदा,
हर इक क़दम की रवाँ, ग़ज़ल हो चला
(अंदाज़ = तरीका; अदा = अदा, स्टाइल; रवाँ = प्रवाह, चाल)
11
वो ठहरे जो इक पल, रुकी साँस बनके,
जो उठे, तो धड़कन की ज़ुबाँ, ग़ज़ल हो चला
मक़ता (अंतिम शेर):
‘वृहद’ उनकी नज़रों से गिरते ही इस तरह,
महफ़िल में फिर बे-गुमाँ, ग़ज़ल हो चला
(बे-गुमाँ = बिना शक के, निर्विवाद रूप से)
Version 3
मतला से मक़ता तक इक सिलसिला चला,
उनके हुस्न का हर निशाँ, ग़ज़ल हो चला।
लब उनके हैं मिसरा-ए-सानी-ओ-उला,
लबों के सुख़न का बयाँ, ग़ज़ल हो चला।
लटें गेसुओं में उलझती रहीं इस क़दर,
बहारों में रंग-ए-समा, ग़ज़ल हो चला।
ख़ुशबू में लिपटा था हर इक हर्फ़ जैसे,
हर क़िस्सा-ए-नग़मा, ग़ज़ल हो चला।
बहर दर बहर अश'आर बहे इस क़दर,
सुख़न का नया इक जहाँ, ग़ज़ल हो चला।
रदीफ़-ओ-क़ाफ़िए की शोख़ियाँ थीं जनाब,
रक्स में बलखाता समाँ, ग़ज़ल हो चला।
तख़य्युल, तसव्वुर, तासीर की थी जो रंगत,
उनकी तस्वीर-ए-निहाँ, ग़ज़ल हो चला।
आँखों में साक़ी के जलवे थे जैसे,
हर जाम में था इक समाँ, ग़ज़ल हो चला।
'वृहद' उनकी नज़रों से गिरते ही यूँ,
महफ़िल में फिर बेग़ुमाँ, ग़ज़ल हो चला।
हर इक शोख़ी-ए-हुस्न लिख न सके 'वृहद',
ग़ज़ल अधूरी भी, फिर भी ग़ज़ल हो चला।