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Monday, March 31, 2025

तुमने पूछा है ख़याल दिल का।

तुमने पूछा है, ख़याल दिल का,
कह भी दूँ कैसे ये हाल-ए-दिल का।

सोचता हूँ अंदाज़, उस पहली बात का,
खुला जो राज़, हिज्र-ए-यार, विसाल दिल का।

सवाल है एक, उस पहली मुलाक़ात का,
जो सिलसिला न बना, बस मलाल दिल का।

गुमाँ था लौटोगे, लेने हाल-ए-दिल का,
रह गया ख़ाम-ख़याल, बेहाल दिल का।

जवाब क्या दूँ, अब तेरे सवाल का,
एहसास-ए-खामोश, बदहाल दिल का।

वर्ज़न-२ 

तुमने पूछा है, क्या ख़याल-ए-दिल का,
कह भी दूँ कैसे ये हाल-ए-दिल का।

सोचता हूँ मैं फिर वही एक लम्हा,
खुल गया था जो इक विसाल-ए-दिल का।

रह गया बस मलाल उस मुलाक़ात का,
जो बना ही नहीं कमाल-ए-दिल का।

गुमाँ था कि आओगे लेने ख़बर तुम,
रह गया बस ग़ुबार हाल-ए-दिल का।

क्या कहूँ अब मैं तेरे इन सवालों,
सिर्फ़ खामोश है मलाल-ए-दिल का।



इक दिन जब तेरे साथ रहे।

 गुफ्तगू के दौर चले,

और साँसें थमने को थीं,
उस रोज़ जब हम मिलने को थे।

नज़रें टकराईं जब पहली बार,
अरमानों के कई फूल खिले,
उस इक दिन जब तेरे साथ रहे।

नज़रें नजरों में रहीं,
बंधन हाथों में रहे,
हुई मौसमों की साज़िश,
फुलकारियों में,
भीगा था बदन,
सर्द थीं राहें,
सांसों में चलीं
सरगोशियों की गर्म आहें,
नजरों में कैद हो गए वो लम्हे,
वो इक दिन जब तेरे साथ रहे।

मंशाएँ ।

 कागजों के पीछे छुप कर,
वो अपनी मंशाएं गढ़ते रह गए।
महरूम, मायूस, मासूम इंसा,
फिर आज तन्हा तन्हा रह गए।"

वो जो बन गया था वजूद मेरा।

 (यह ग़ज़ल ध्यान, तन्हाई, और जुदाई के भावों से भरी हुई है)

वो जो बन गया था वजूद मेरा,
उसे अब और तलाशूँ किसमें?
चहुँ ओर नूर तेरे एहसास का,
नूर-ए-शिफ़ा अब उतारूँ किसमें?

तेरी सोहबत में, दुनिया से बेखबर मैं,
सुकून-ए-हयात बसाऊँ किसमें?
दिल जो महका था तेरे फ़िक्र-ओ-फ़न से,
अब उजड़े मकाँ को सजाऊँ किसमें?

तेरी नज़रों के वारे थे,
कि दिल भी हारा, जहाँ भी हारा।
अब उस तीर-ए-नज़र का असर,
इस वीरां दिल में बचाऊँ किसमें?

राहतें और सही, वस्ल की राहत के सिवा,
इन ख़ाली रातों के जुगनू जलाऊँ किसमें?

Saturday, March 29, 2025

इश्क़-ए-शिकस्त

इश्क़-ए-शिकस्त में ये ठौर ठहरी,
फ़ेहरिस्त-ए-आशिक़ी में हम नहीं।

शिफ़ा-ए-रंजिश क़ुर्बत ही सही,
रुसवाई की मौजों में, थे हम नहीं।

बग़ावत-ए-हुस्न में शहादत ही सही,
तेरे ज़िक्र-ओ-गुमान तक में हम नहीं।

तग़ाफ़ुल-ए-यार में हम रहगुज़र नहीं,
मगर तेरी राहों के ख़ार में हम नहीं।

'वृहद' अपनी रंजिश में इतना क्यूँ है,
जिसे चाहा था, अब वो ही हम नहीं।

The Hollow Well

 Before you, I knelt to a shadowed shrine,

A worshipper lost in a dream divine.

With you, the ember turned to flame,

A passion untamed, a whispered name.


And after—only silence grew,

An empty well where echoes flew.

I pour my verses, line by line,

Each word a wish, each rhyme a sign.


O depths so deep, O sorrow wide,

Will longing ever fill your tide?

Or shall my whispers, soft and frail,

Fade like footsteps on a trail?


Someday, perhaps, the well will rise,

With echoes soft as midnight sighs.

Or maybe love, once fierce and bright,

Will seep into the endless night.

Friday, March 28, 2025

अधूरे लफ़्ज़

 सद-ए-ख़ामोशी में मौन उतरा,
वो शख़्स न था, ये कौन उतरा?



सद-ए-सुकूत (मौन की आवाज़)

सद-ए-ख़ामोशी में मौन उतरा,
वो शख़्स न था, ये कौन उतरा?

नाद-ए-अनहद का शोर उठा,
शोर को सुनता ये कौन उतरा?

चित्त-मन सरवर में लहरें थमीं,
दरिया-ए-सुकून में फिर कौन उतरा?

वृहद तिश्नगी जो तृप्त हुई,
आब-ए-हयात सा कौन उतरा?

टूटी तृष्णा, टूटे भ्रम सारे,
मिट गया वृहद तृण-तृण,
चैतन्य ये पुरुष कौन उतरा?

version 2 

सद-ए-सुकूत (मौन की आवाज़)

सद-ए-ख़ामोशी में मौन उतरा,
वो शख़्स न था—ये कौन उतरा?

अनहद नाद का ज्वार उठा,
उस शोर को सुनता ये कौन उतरा?

लहरें थमीं चित्त-सरवर में,
दरिया-ए-सुकून में फिर कौन उतरा?

वृहद तिश्नगी जब तृप्त हुई,
अमृत सा बरसा—ये कौन उतरा?

टूटी तृष्णा, मिटे भ्रम सारे, वृहद मिटा,
चैतन्य में जागा—कौन उतरा?

सद-ए-सुकूत (ग़ज़ल)

सद-ए-ख़ामोशी में कोई उतरा,
वो शख़्स न था—ये कौन उतरा?

अनहद नाद उठा जब दिल में,
उस शोर को सुनता कौन उतरा?

लहरें थमीं जब चित्त-सरवर,
दरिया-ए-सुकूँ में कौन उतरा?

वृहद तिश्नगी जब बुझ भी गई,
अमृत सा बरसा—कौन उतरा?

टूटी तृष्णा, मिटे भ्रम सारे,
वृहद मिटा—पर कौन उतरा?

सदियों से जो खोज रहा था,
आख़िर में मुझमें कौन उतरा?

जागी नज़रों में रौशनी सी,
इस दिल के भीतर कौन उतरा?

ख़ुद को भी पहचाना जब मैंने,
आईना बोला—"कौन उतरा?"

Thursday, March 27, 2025

कुछ मंज़िलें थीं, जो सफ़र हो गए ।

 



कुछ मंज़िलें थीं, जो सफ़र हो गए,
वजूद-ए-मंज़र रहगुज़र हो गए।

कुछ फ़ासले थे, जो मिट गए,
जब इक नज़्म में मुकम्मल हो गए।

जो लफ़्ज़ अधूरे थे, ख़ामोशियों में,
तेरे एहसास में ग़ज़ल हो गए।

कभी धूप थी, जो सिरहाने रुकी,
तेरी छाँव की आहट में सहर हो गए।

कुछ अरमान थे, सिर्फ़ कागज़ पे लिखे,
तेरी नज़रों की तलब में बहर हो गए।

तेरी यादों में बने अल्फ़ाज़ सुख़न हो गए,
जो भूले से थे लफ़्ज़, वो रहबर हो गए।

Saturday, March 22, 2025

हक़ीक़त के आईने

ऐब-ए-हुनर में जीने वाले,
इतराते बहुत हैं।

जहीन-ए-फ़ितरत में जीने वाले,
छुपाते बहुत हैं।

दस्तूर-ए-सच को अपनाने वाले,
निभाते बहुत हैं।

वर्शन 2

हुनर-ए-ऐब में जीने वाले,
इतराते बहुत हैं।

फ़ितरत-ए-जहीन में जीने वाले,
छुपाते बहुत हैं।

सच-ए-दस्तूर को अपनाने वाले,
निभाते बहुत हैं।

लिखने जो बैठूं तुझे,

लिखने भी बैठूं तुझे, तो क्या लिखूं मैं,
लिख दूं अपने दर्दे-जिगर का हाल,
या लिखूं खय्याम से खयाल।

लिख दूं सुबू सी, तेरी आंखों की प्यालियां,
तेरी महफ़िल में बदनाम आशिकों की गलियां।
कौन-कौन से हुस्न का रखूं हिसाब,
तेरे जौहर हैं सारे बेहिसाब।

दास्तान-ए -वर्जिश

 जिस्म टूटता है लौह के आशियाँ में कतरा-कतरा,
होती ही रूबरू तन की ख़्वाहिशें कतरा-कतरा।

लहू में तपिश, सांस में शोले लिए फिरता हूँ,
यूँ ही नहीं बनते हैं बाजू फौलादी कतरा-कतरा।

दर्द भी हंस पड़ा इस कड़ी आज़माइश पर,
जब मैं पिघलने लगा अपनी ही आग में कतरा-कतरा।

आईनों में दिखता है अब सख़्त इक बदन,
जाने कितने दर्दों का हासिल है कतरा-कतरा।

मंज़िल ही सफ़र है जिस्म के दर्द का,
जिस्म माँगता है इक सज़ा कतरा-कतरा।

मक़ता:
वृहद ख़ुद को गढ़े लोहे की इस भट्टी में,
अब न झुकेगा किसी आँधियों में कतरा-कतरा।

वर्ज़न 2 

आग सी जल रही है रगों में, कतरा-कतरा,
ख़ून कहता है बढ़, हौसलों में, कतरा-कतरा।

लोहा उठता नहीं यूँ ही बाज़ू से, देखो,
दर्द बहता है सीने के ज़ख़्मों में, कतरा-कतरा।

वज़्न बढ़ता गया, हड्डियाँ चीख़ उठीं,
फिर भी ढलता रहा मैं लहू में, कतरा-कतरा।

आईनों में दिखी अब वो सख़्त इक शख़्सियत,
जिसने जोड़ा बदन अपने खंडों में, कतरा-कतरा।

मंज़िलें क्या हैं? बस और मेहनत करो,
रोज़ पिघला हूँ लोहे की भट्टी में, कतरा-कतरा।

मक़ता:
वृहद अब न रुकेगा किसी मोड़ पर,
ख़ुद को गढ़ता रहेगा क़सम में, कतरा-कतरा।

वेसरिऑन 3 

जिस्म टूटे है आग़ोश-ए-ग़म में, कतरा-कतरा,
रूह जलती रही शौक़-ए-दम में, कतरा-कतरा।

ख़ून में जोश है, आग़ है साँस में,
यूँ ही ढलते नहीं तीर-ओ-ख़म में, कतरा-कतरा।

दर्द हँसने लगा आज़माइश पे जब,
ख़ुद ही जलने लगा अपनी चम में, कतरा-कतरा।

अब जो आईने में अक्स सख़्त है,
दर्द घुलता रहा इस क़दम में, कतरा-कतरा।

मंज़िलें ही सफ़र बन गई हैं, मगर,
दर्द मिलता रहा हर क़सम में, कतरा-कतरा।

मक़ता:
वृहद अब न झुकेगा किसी आँधियों में,
आब दी है इसे अब क़सम में, कतरा-कतरा। 

Friday, March 21, 2025

सोहबत-ए-सांझ

 
एक सुनहरी सांझ, दूब से ढका मैदान, हल्की हवा में झूमते पेड़, पंछियों की परछाइयाँ और प्रेमी युगल। लड़का अपनी प्रेमिका की गोद में सिर रखे, उसकी आँखों में खोया हुआ है, और वह उसे प्यार भरी नजरों से देख रही है। यह सीन तुम्हारी कविता के भावों को पूरी तरह जीवंत कर देता है।



तेरी ज़ुल्फों से हुई वो शाम,
और तेरी आँखों में डूबा था मैं।
तेरा गोद था सिरहाना,
एक अनोखे मंज़र में खोया था मैं।

बायरों की मस्ती थी,
या खिलती तेरी हस्ती थी,
खिल उठती फिज़ा सारी,
जब भी तू हंसती थी।

लब खामोश थे,
पांव तले थे दूब के गलीचे,
मंजर खुद बयां कर रहे थे ,
दास्तान-ए-सोहबत मुहब्बत के।

यूँ बयां की,
मंज़र ने सोहबतें दास्तान हमारी।
सुना है,
इन्हें गाते हैं बागों के फूल सारे खुशबुओं में,
और विहंग,
करते संध्या गायन,
जो सोहबत-ए-सांझ हमारी थी।

कभी-कभी,

तुकों में खेलता, उलझता रहता था मैं, बस,
यही सोचता, क्यों हैं ये लफ़्ज़ इतने दिलकश।

इन तुकों का क्या करूँ, कैसे ढालूँ एहसास,
लिखूँ तो क्यों बिखर जाए, चुप रहूँ तो कश्मकश।

लफ़्ज़ों में रखूँ आग, या पानी कर दूँ इन्हें,
अश्कों में भीग जाएँ, या शोला बनें बेबस।

काग़ज़ की ये सतह भी कुछ कहती है मुझसे,
लिखने को बेचैन हूँ, फिर भी हूँ ख़ामोश बस।

बिछड़े थे हम एक मोड़ पर,

 बिछड़े थे हम एक मोड़ पर,
कुछ हसीन यादें छोड़ कर।
जो राहें साथ चली थीं कभी,
रह गईं यादों के निशान छोड़ कर।

तेरा शऊर और तेरा रहम,
तेरी अदा, सब छोड़ कर,
चल दिया तू एक अजनबी सा,
मुझे तन्हा सा छोड़ कर।

काफ़िला-ए-कारवां की थी ये मांग,
तेरी याद चले, तेरा साथ छोड़ कर।
सफ़र की रस्में निभानी थीं यूँ,
दिल को तन्हा सा छोड़ कर।

सफ़र फ़कीरी में, बचा कुछ नहीं,
बस तेरी यादें छोड़ कर।
न कोई मंज़िल, न कोई सहारा,
बस तेरा एहसास छोड़ कर।

बहता हूँ मैं अविरल धारा-सा,
हर एक ठहराव का अरमान छोड़ कर।
मुक़द्दर की लहरों संग चलता रहा,
सारे अपने अरमान छोड़ कर।

Thursday, March 20, 2025

संजोग।

प्रकृति की गति, होती वृत्ति से,
एक तेरी थी, एक मेरी थी।
कैसे कह दूं मिलना संजोग़ था,
क्यों न कह दूं,
मिले हम अपनी गति से,
एक तेरी थी, एक मेरी थी।

लय की बयार बहती, प्र-वृत्ति से,
एक तेरी थी, एक मेरी थी।
बहना–बहकाना संजोग़ था कैसे,
क्यों न कह दूं,
मिले हम अपनी ही लय से,
एक तेरी थी, एक मेरी थी।

हम भी थे वहीं

  तेरे ही दिल में, न थी आरज़ू कोई,

तलाशते तो मिलते, हम भी वहीं थे।

Wednesday, March 19, 2025

ग़ज़ल – उनके हुस्न के संग ग़ज़ल मुकम्मल हो चली

मतला:

मतला से मक़ता तक एक सिलसिला चला,
उनके हुस्न का हर बयाँ ग़ज़ल हो चला।

मिसरा-ए-उला और मिसरा-ए-सानी का जादू देखो:

ज़ुल्फ़ों की गिरह में उलझते रहे शेर,
लब ने जो छेड़ा, बयाँ ग़ज़ल हो चला।

रदीफ़-काफ़िया का हुस्न:

आँखों में साक़ी का अंदाज़ भी था,
हर जाम में इक समां ग़ज़ल हो चला।

बहर की नज़ाकत और हुस्न की शोख़ी:

रुख़्सार पे शोले, लबों पर गुलाब,
हर रंग में इक नशा ग़ज़ल हो चला।

तखय्युल का जादू:

ख़ुशबू में लिपटा था हर इक हर्फ़ जैसे,
लिखते ही वो दास्ताँ ग़ज़ल हो चला।

हुस्न-ए-मक़ता (तखल्लुस के साथ):

'वृहद' उनकी नज़र से जो उतरा क़लाम,
महफ़िल में फिर बेग़ुमाँ ग़ज़ल हो चला।

Version 2:

मतला (पहला शेर):
मुरव्वत-ए-शाक़ी का फ़ुग़ाँ, ग़ज़ल हो चला
उनके भीगे बदन का नशा, ग़ज़ल हो चला
(मुरव्वत = मेहरबानी; शाक़ी = शराब परोसने वाला; फ़ुग़ाँ = आह, कराह)

1
मतला से मक़ता तक एक सिलसिला चला
उनके हुस्न का हर बयाँ, ग़ज़ल हो चला
(हुस्न = सौंदर्य; बयाँ = वर्णन)

2
लब थे उनके मिसरा-ए-सानी ओ उला,
हर इक सुख़न की दुआ, ग़ज़ल हो चला
(लब = होंठ; मिसरा-ए-सानी/उला = शेर की दूसरी/पहली पंक्ति; सुख़न = कविता/शब्द)

3
आँखों में साक़ी के जलवे थे जैसे,
हर जाम का कारवां, ग़ज़ल हो चला
(साक़ी = शराब परोसने वाला; जलवे = चमक, सौंदर्य; जाम = प्याला; कारवां = काफ़िला)

4
ख़ुशबू में लिपटा था हर इक हर्फ़ जैसे,
हर क़िस्सा-ए-नग़मा, ग़ज़ल हो चला
(हर्फ़ = अक्षर; क़िस्सा-ए-नग़मा = गीत की कहानी)

5
रुख़्सार पे जो फैली थी लाली सुब्ह-ए-चमन,
हर गुल का रंग-ए-फ़ना, ग़ज़ल हो चला
(रुख़्सार = गाल; सुब्ह-ए-चमन = बाग़ की सुबह; फ़ना = मिट जाना, लय हो जाना)

6
लटों में उनके उलझते रहे यूँ ही अश'आर,
घटाओं की रौ, इक सदा, ग़ज़ल हो चला
(लटें = बाल; अश'आर = शेर; रौ = बहाव, प्रवाह; सदा = आवाज़)

7
बहर दर बहर बहे अश'आर इस क़दर,
बज़्म-ए-सुख़न का जहाँ, ग़ज़ल हो चला
(बहर = छंद, मीटर; बज़्म-ए-सुख़न = कविता की सभा)

8
रदीफ़-ओ-क़ाफ़िए की शोख़ियाँ थीं जनाब,
रक्स में बलखाता समाँ, ग़ज़ल हो चला
(रदीफ़ = दोहराया जाने वाला अंतिम शब्द; क़ाफ़िया = तुकांत; शोख़ियाँ = चंचलताएं; रक्स = नृत्य)

9
तासीर-ए-तख़य्युल-ओ-तसव्वुर, की थी जो रंगत,
तस्वीर-ए-नज़्म का सफ़्हा, ग़ज़ल हो चला
(तासीर = असर; तख़य्युल = कल्पना; तसव्वुर = सोच, कल्पना की छवि; नज़्म = कविता; सफ़्हा = पन्ना)

10
चलने का था अंदाज़, ठहरने की थी अदा,
हर इक क़दम की रवाँ, ग़ज़ल हो चला
(अंदाज़ = तरीका; अदा = अदा, स्टाइल; रवाँ = प्रवाह, चाल)

11
वो ठहरे जो इक पल, रुकी साँस बनके,
जो उठे, तो धड़कन की ज़ुबाँ, ग़ज़ल हो चला

मक़ता (अंतिम शेर):
‘वृहद’ उनकी नज़रों से गिरते ही इस तरह,
महफ़िल में फिर बे-गुमाँ, ग़ज़ल हो चला
(बे-गुमाँ = बिना शक के, निर्विवाद रूप से)

Version 3

मतला से मक़ता तक इक सिलसिला चला,
उनके हुस्न का हर निशाँ, ग़ज़ल हो चला।

लब उनके हैं मिसरा-ए-सानी-ओ-उला,
लबों के सुख़न का बयाँ, ग़ज़ल हो चला।

लटें गेसुओं में उलझती रहीं इस क़दर,
बहारों में रंग-ए-समा, ग़ज़ल हो चला।

ख़ुशबू में लिपटा था हर इक हर्फ़ जैसे,
हर क़िस्सा-ए-नग़मा, ग़ज़ल हो चला।

बहर दर बहर अश'आर बहे इस क़दर,
सुख़न का नया इक जहाँ, ग़ज़ल हो चला।

रदीफ़-ओ-क़ाफ़िए की शोख़ियाँ थीं जनाब,
रक्स में बलखाता समाँ, ग़ज़ल हो चला।

तख़य्युल, तसव्वुर, तासीर की थी जो रंगत,
उनकी तस्वीर-ए-निहाँ, ग़ज़ल हो चला।

आँखों में साक़ी के जलवे थे जैसे,
हर जाम में था इक समाँ, ग़ज़ल हो चला।

'वृहद' उनकी नज़रों से गिरते ही यूँ,
महफ़िल में फिर बेग़ुमाँ, ग़ज़ल हो चला।

हर इक शोख़ी-ए-हुस्न लिख न सके 'वृहद',
ग़ज़ल अधूरी भी, फिर भी ग़ज़ल हो चला।

Tuesday, March 18, 2025

फ़रेब था।

सोहबत का शिकवा नादानी थी,
तसव्वुर में रहना फ़रेब था।
निगाहों की मंज़िल थी दरिया मगर,
किनारों का कहना फ़रेब था।

बज़्म-ए-रिंदाँ में शाक़ी भी रिंद,
खुमारों का रंग इक फ़रेब था।
सुबू और साग़र की हक़ीक़त कहाँ,
बहारों का गहना फ़रेब था।

जिन्हें हमने समझा था साक़ी यहाँ,
उनकी मुरव्वत भी इक फ़रेब था।
लबों की हँसी में छुपे थे शिकस्त,
मुस्कानों का गहना फ़रेब था।

एक अहद पर ज़िंदगानी बसर,
ज़िंदगानी का शुऊर फ़रेब था।
जो लफ़्ज़ों में सच था, हक़ीक़त में क्या,
हर इक मा'नी में बस फ़रेब था।

वृहद, तेरा हर इक फ़साना यहाँ,
हक़ीक़त का चेहरा फ़रेब था।

~ वृहद

Monday, March 17, 2025

अदा का श्रृंगार।

 दो रूहों की पहचान बना बैठे हैं,
हर दिन को इतवार बना बैठे हैं।
जैसे मौसमों की हो साज़िश कोई,
इस प्रेम उमंग में वो
हर छन को त्योहार बना बैठे हैं।"

"उनकी राग-गाथा के हर भाव,
सब दर किनार हुए पड़े हैं।
अपने प्रेम-प्रसंग की कल्पना को,
नवीन अभिव्यक्ति की पहचान बना बैठे हैं।
शेर-ओ-शायरी अपनी क़लम की निब से,
जीवन के कोरे काग़ज़ को सजा बैठे हैं।"

"जो कह भी दिया इज़हार-ए-इश्क़ कभी,
तीर-ए-जिगर के हैं जज़्बात सभी।
प्रेम की भाषा को नई,
अदा का श्रृंगार बना बैठे हैं,
अपनी रचना का हमें,
आधार बना बैठे हैं।"

प्रिय, तुम बिन क्यों लगे जैसे...

 प्रिय, तुम बिन क्यों लगे जैसे...

चला जाऊं बस अनजानी राहों पर,
जब तक थकें पांव, जब तक रोके न कोई,
न तपती धूप, न सरोवर का पानी,
न हरियाली की गोद, न अमराई की छाँह।
बस चलता जाऊं, तुम बिन कहीं...

हर दिशा बैरन, हर क्षण उदास,
हर्ष-उन्माद के संग खड़ा यह विरह,
सूरज की पहली किरण से, चाँद की अंतिम चांदनी तक,
जलता जाऊं, बुझता नहीं, तुम बिन कहीं...

हीय में दबी भावनाएँ जब उभरती हैं,
हर शब्द में बस तुम्हीं को गढ़ता हूँ,
इतिहास के पन्नों पर लिख दूँ मैं,
एक नाम हमारा,
और एक नाम वियोग के उस क्षण का भी।

यह कलम न रुके, ये पाँव न थमें,
बस एक यही तपस्या शेष रहे,
प्रेम के अधूरे स्वरूप को संवारने की,
और इस विरह की अग्नि में,
तुम बिन जलता चला जाऊं...

तेरा खिलवाड़

 उनके खेल में दो दिल होते हैं,

एक उनका, एक मेरा।

नियम खेल के सारे उनके,
चित्त भी उनका, पट भी उनका।
जीत उनकी और हार बस मेरी,
खुशियाँ उनकी, बेबसी मेरी।

बचपना भी उनका,
परिपक्वता भी उन्हीं की।
हम तो बस बंदर से नाचते रहते हैं,
रात की दो नींद और अगले दिन
फिर एक नए खेल के लिए।

वस्ल-ए-यार की आरज़ू

 इश्क़-ए-दस्तूर की बड़ी-बड़ी बातें हैं,
अंजाम-ए-इश्क़ पे बड़ी इबादतें हैं।
वस्ल-ए-यार की आरज़ू,
फिर क्यों नहीं निभाते हैं?
हमसे मिलने वो, क्यों नहीं आते हैं?

तुम बिन कैसे जिया मै ।

एहतियात-ए-इश्क़ के एक वादे पर तुम बिन,
जाने कैसे जिया हूँ मैं।
जुदाई की हर वेदना में तुमको ही याद किया,
और तुम-सा जिया हूँ मैं। 

मगरिब के धूल भरे मैदानों में

 मगरिब के धूल भरे मैदानों में,
तुम मृगतृष्णा-सी दिखती थी
दिशाओं में तुम्हें तलाशते उस पथिक को।

जब मृगतृष्णा दर्पण-सी टूट जाती,
पथिक का दिल उससे कहता:
"तू दर्पण में नहीं है,
तू तो इस दिल में बसती है।

हौसलों की दुहाई

 ख़ुद के हौसलों की हम दुहाई दें,
या फिर इसे रूसवाई करें?
दिल में जो आग सुलग रही,
उसे कब तक परछाईं करें?

जो अहसास दिल में बसा रहा,
वो दूर जाने न दे सका,
और जुदाई ऐसी रही,
कि पास रहने भी न दे सका।

उन दौर में भी, एक आभा थी तुम,
जो मुख पे खिलती उषा भी तुम।
हर छाँव में जो संग रही,
वो प्यारी सी आशा भी तुम।

एहसासों में बाँधकर हर साँस की डोर,
दिल की हर धड़कन से गुज़रते रहे।
हर लम्हे में यादें बसी हैं तुम्हारी,
शायद एक जीवन भी बसाया हमने—
तुमने, मैंने मिलकर...

quest in her eyes

 Mane runs down the neck,
A lavished herd of sheep, downhill.
She looks at the sea,
With a quest in her eyes—
Who is wild, you or me?

दूजे से रह गए

 

प्यार का क़स्बा सुना था मेरे लिए,
इश्तेहार कोई बहुरूपिया दे गया।

इंतज़ार की बेताबियाँ जब शब्द बनीं,
शब्द उनकी महफ़िलों के चर्चे बन गए।

कलम और क़लमे के हुनर के दीदार में,
कमबख़्त एक हम ही दूजे से रह गए।

अज़ीज़ लतीफ़े

 
जनाब के लतीफ़े भी बड़े अज़ीज़ हैं,
यादों के तड़के पे मुखड़े लज़ीज़ हैं।

तानों की तान में छुपा लेते हैं
अरमानों के फ़रमान,
जगह मिलने की बता देते हैं—
गली नामी चाय दुकान।

मॉर्निंग अलार्म बनकर।




 हर सुबह आती है सदा उस ओर से पैग़ाम बनकर,
सुब्ह की नई किरण सी, एक नई सौग़ात बनकर।
चली आ, प्यारी, तू जगा देती है मुझे,
कभी ख़्वाबों में, कभी मॉर्निंग अलार्म बनकर।

तबस्सुम में तरन्नुम









 तबस्सुम में तरन्नुम के तराने घोलकर,
एक इशारा किया जनाब ने।
आफ़ताब से आबाद हो गई है,
रौनक़े-बहार की।

मौसम की पहल

 गुमसुम गुमसुम यूँ हुई है कुछ मौसम की पहल,
जैसे कोई मल्हार गा रहे हैं विहंग, कर रहे हों अभिनंदन।
ग्रीष्म की बेचैनी जैसा इंतज़ार हर लम्हा हो गया है।

आने वाले मेहमान के स्वागत को
ये बयारें भी जैसे बहते-बहते एक संदेश दे रही हैं।
आएंगे जनाब तो मौसमों की राहत-सी कुछ बरस पड़ेंगे,
दिल में सुलगते जो अरमान हैं, वो भी सिमट जाएंगे।

गाँव के बाग में फ़रे बेल

गाँव के बाग में फ़रे बेल
और चापाकल का मीठा, ठंडा पानी,
जब मिलकर शरबत बनते हैं न,
तब अमृत का स्वाद भी
कुछ फीका सा हो जाता है।

ज़िन्दगी में जीते-जी कफ़न ओढ़ना ज़रूरी होता है

 ज़िन्दगी में जीते-जी कफ़न ओढ़ना ज़रूरी होता है,
कुछ पुरानी यादों को दफ़न करना ज़रूरी होता है।
कुछ अल्फ़ाज़, कुछ गुफ्तगू बाकी रह गई तो क्या हुआ,
कुछ जज़्बात ऐसे भी हैं, जिनके लिए
बस जीते रहना भी ज़रूरी होता है।

कुछ कशमकश, खामोशियों के रुख़ पे रुख़सार हैं,
किसी मैख़ाने के खाली प्याले,
कुछ नम आंखों की ख़ामोश पुकार हैं।
सब्र, चाहे जितनी तकलीफ़ दे,
कभी-कभी उम्र भर का सब्र भी ज़रूरी होता है।

जो जुदा हो कर भी जिंदा है अहसासों में कहीं,
उसकी लंबी उम्र के लिए,
उससे जुदा-जुदा रहना भी ज़रूरी होता है।

— एक कहानी जो ख़ामोशियों में भी गूंजती है।

 






चाहत-ए-वस्ल की मुखबिरी करे अब कौन,
ऐ जश्न-ए-दिल की मलिका,
मेरी फ़रमाइशों और शोख़ियों को,
थोड़ी हवा तो दे...

अधर, उर की गवाही

 अधर, उर की गवाही न दे सके,
तो कलम चल पड़ी,
फसाने में चुपके से लिख बैठे वो
हाल-ए-दिल अपना।

अंदाज़-ए-बयाँ तो देखिए,
कि इनमें—
है रागिनी की शांति,
और गौरैयों की चहक भी।

दिल है वहीं, दिल था जहाँ

दुर्गम नहीं तो सृजन कहाँ,
दिल है वहीं, दिल था जहाँ।
वो रात सी थी खामोशियाँ,
दिन भी थे कुछ गिने-चुने।

भर आगोश में या हो जुदा,
दिल है वहीं, दिल था जहाँ।
ये है शमा, जहाँ दिल था थमा,
जो कल था जहाँ, है वो अब भी वहाँ।

न वस्ल हुई, न जुदा रहे,
न ख़्वाब सजे, न ख़्वाब बने।
है वो दिल कहाँ, जो था यहाँ,
या दिल है वहीं, दिल था जहाँ।

अम्बर फुलकरियों से फिर है सजा,
मेघ उमड़ते, बरसते रहे सदा।
है दिल वहीं, दिल था जहाँ,
या दिल है वहीं, दिल था जहाँ।

आ थाम ले, आ थाम ले,
या दे मुबारकाँ जो है सजी।
तेरी खुशियाँ जहाँ,
मैं हूँ वहीं, तेरी खुशियाँ जहाँ।

है ये जहाँ, वो भी जहाँ,
आ देख ले, मैं हूँ कहाँ।
तेरी खुशियाँ जहाँ,
है ये दिल मेरा वहाँ।

Sunday, March 16, 2025

यादों की तहज़ीब

भूलने की तहज़ीब अभी तक नहीं सीखी,
न यादों को संजोने का तजुर्बा है।
चाहतों की सिलवटें अब उभरने लगी हैं,
शायद…
मगर ये चलती साँसें, ये धड़कते दिल,
यादें नहीं बना करते।

यादें तो तब मुकम्मल होंगी,
जब ये साँसें थम जाएँगी,
जब धड़कनों की आख़िरी दस्तक होगी, मेरे दोस्त।

तेरी याद बेहिसाब आई।

 ज़ुल्म जितना बढ़ा, तेरी याद उतनी आई,
नाप-तौल कर, न कम, न ज्यादा उतनी ही आई। 
ज़ुल्म बढ़ता रहा, साज़िशें बेतरतीब बढ़ीं, 
मौन के इस दौर में तेरी याद बेहिसाब आई।

ज़ुल्म-ओ-सितम के दौर में दर्द फ़ुग़ाँ हो गया, 
फुग़ाँ-ए-शौक़ में मरहम तेरी याद हो आई।
 दीद के क़ाबिल न सही, दीद-ए-इश्तिहार सही,
 यादों से खाली दिल में, तेरी याद बेहिसाब आई।

Saturday, March 15, 2025

fewer memory stalls.

 You'll never, and I'll never
See and miss each other.
Pranks you played
Have turned pancakes sour—
Toffees rot, silver is corpse.

Decades decay descents,
At some fewer memory stalls.

अर्ज़ का ख़याल

 कुछ तो कशिश है उन आंखों में
जब भी देखता हूँ
निहाल हो जाता हूँ
कमबख्त दिल बेहाल हो जाता है।

आरजूओं के आसमान हैं
ये सागर के समान हैं
इनकी गहराइयों में डूबा मैं
अर्ज़ का ख़याल हो जाता हूँ।

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 इन झरोखों पे खुलती दीवार पर
फिर उकेरा जनाब ने है दिल अपना
एक हुजूम है
सिलसिले से उन तासीरों के पीछे
उस दीवार के,
जिसपे तस्वीर बनकर हम रह गए
और वो तासीर से खिंची तस्वीरों से
जाने क्या क्या कह गए।

इन झरोखों पे खुलती दीवार पर,
फिर किसी ने उकेरा है दिल अपना।
एक हुजूम है तासीरों के सिलसिलों का,
उस दीवार के पीछे,
जहाँ तस्वीर बनकर हम रह गए,
और वो तासीर से निकली छवियों में,
जाने क्या-क्या कह गए।

सिमरन की माला

सिमरन की माला सांसों में लिए
कांटो के दामन में चलते रहे,
आपको याद करते, और दिन गुज़रते रहे,
रात खामोशियों से गुफ्तगू में बीत जाती,अक्सर
और तन्हाईयों से रिश्ते गहरे होते रहे।

एक सदी सी गुज़री है अभी अभी
पर इन आँखों में नमी है वैसी हिं 
लोग कहते रहे कि ज़ुल्म सहते हो क्यों?
और हम ज़ुल्म की बेबसी पे हँसते रहे।

कभी बुलाते नहीं, मगर,

 कभी बुलाते नहीं, मगर

तस्वीर मेरी दिल पे रखकर,
मुझे छुप-छुप कर याद करते हो,
अपनी ग़ज़लों में,
फिर मुझे आबाद करते हो...
तुम भी तो...
तुम भी तो...
मुझसे ही प्यार करते हो।

तुम भी तो, जुदाई में,
बहते अश्कों से सवाल करते हो,
ज़ुदा करके खुद से मुझे,
फिर मेरा इंतज़ार करते हो।
इबादत भी, महरूमियत भी,
ये कैसा इंतक़ाम करते हो?
तुम भी तो...
तुम भी तो...
छुप-छुप अश्रु बहाकर,
मेरा इंतज़ार करते हो।

lost and forgotten juveniles poems: Hope- Draped in a pall of black.

 I sigh, I look at you—
A salute, a propagation,
A meaning adrift, a fish of imagination.

Upon the waves you swim,
I stand amazed—
The will I survived, often provoked.

I almost called you a mystery,
I almost wrapped myself in myth.
Then one day, I opened a door—
A door to happiness.

But all I saw was light,
Draped in a pall of black.

lost and forgotten juveniles poems: Go away—

 Go away—

like the hounds of pounding sounds,
and all that surrounds,
a funny errand.

Voices I heard—
like a child wishing in the well,
like poker fishing in a dry shell,
a thought to prevail,
to excel, to pale—
but all is stale.

Go away—
your heart has had enough of me.
Leave me baffled, shattered,
clattered—still battling,
though I owned you,
you barely reckoned—
fairly, barely—hypocrisy.

Thanks for it all.
Was that all but a bluff?
Still, you were welcomed.

lost and forgotten juveniles poems: Hit the wall.

 You wish to hit the wall—
that is your will.

You can hit the wall—
that is your strength.

You hit the wall—
that is your courage.

You keep hitting the wall,
believing it will break—
that is stupidity.

You keep hitting the wall,
believing it will break if done wholeheartedly—
that is faith.

You keep hitting the wall,
believe wholeheartedly, and it breaks—
that is a miracle.

Faith is blind; it needs no reason.
Miracles are unexplained.
But only hard work can make a difference—
do not escape it.

Your will generates strength.
Your strength fuels courage.
Courage is often mistaken for stupidity.
Stupidity ends where logic begins—
or so they say.

Yet stupidity, with a little insight and courage to persist,
becomes faith—
and faith is miraculous.

बचपन के भूले गीत: अश्क-ए-शाम

 ज़िंदगी कुछ इस तरह ख़ामोशियों से भर गई,
जीते थे जिन ख़्वाबों के सहारे, वो कहीं अब रह गए।
आँसुओं से भरी महफ़िल में, जाने क्यों अकेले रह गए,
अब तो बस अश्क-ए-शाम है, इसकी हर जाम में बह गए।

बचपन के भूले गीत: अश्कों का सराय

 उनकी महफ़िलों में रंग जमते हैं,
जो दिल के क़रीब हैं, मगर पास कभी नहीं आते।
जो रास्ते ख़्वाब बन गए, उन्हीं राहों की आस लगाते हैं,
क्योंकि हम राही, बेपनाह अश्कों की सराय बनाते हैं।

lost and forgotten juveniles poems: Moments ago

 moments ago u were here, 

moments later u were no where, 

but all i know is u live in me, 

and those moments are now every where

बचपन के भूले गीत: समा-बेवफ़ा

 समा तो तभी रंगीन हुई थी जब कि,
जब फ़ितरतें आवारा थीं।
मगर ज़ालिम समय की नज़ाकत को कोई नहीं जानता,
शाम भी तभी होती है जब मंज़िल क़रीब हो।

lost and forgotten juveniles poems: Moments of bliss

 A moment passed through me—
I don’t know what it was,
But an ecstasy,
Unending, ever-lived, cherished—
Like standing amidst a thousand blossoms.

And yet, those blossoms
Could never have given me
That moment—
The one that stole my whole night.

But I know—I am alive,
Blissfully amazed by the past,
Standing still,
Wishing it had lasted forever...

lost and forgotten juveniles poems: Babels in my head.

 Ringing, ringing—
Babels in my head.
Some have one, some had ten,
But I feel I have hundreds—
All ringing, ringing,
Making babels in my head.

Like cluttering pebbles,
Like scrabbling Scrabble,
With rumbling parables,
Scything scythes
In haunted nights—
Losing pride.

Where shall I abide,
With ringing, ringing—
Babels in my head?

बचपन के भूले गीत: गीले अश्क ।

ये अश्क भी गीले पड़ गए हैं,
जो मोती तुमने ठुकरा दिए,
कुछ ख़ामोशियाँ बाक़ी हैं,
कुछ यादें अब भी बची हैं।

हर शाम कहती है कुछ यूँ—
ज़िंदगी एक जाम है, पीए जा रहे हैं,
ग़मों की एक शाम है, जिए जा रहे हैं।
ये जाम लफ़्ज़ों पे आए, तो बस आरज़ू है,
ये जाम नब्ज़ों में उतर जाए, तो बस ज़िंदगी है।

ज़ेहन से उठता धुआँ,
जिस तलब की तलाश में भटक रहा है,
जाने वो फिर से मिलेगी कैसे..

lost and forgotten juveniles poems: Thief in the night

The one we wait for, tirelessly and long,
Often comes in silence,
Like a thief in the night.
If you receive Him,
There will be a shout of joy;
And if you miss Him,
There will be a cry of despair.

developed from Bible parable "Thief in the Night" (1 Thessalonians 5:2)

lost and forgotten juveniles poems: Dining with our instincts!

 They are the ones who like you solely,
For they are the ones who like you soulfully.
Walking a path denied of its existence,
A pair of rhymes, a tune — first irritates,
Then lures.

The precaution fades when we love this sound,
Joy no longer seems a reason to live for,
When the beats of a song flow out through the heart.
Hail! For we’ve learned to live,
Learned to dine with our instincts

lost and forgotten juveniles poems: Anomalies: A story’s spare

 Playing with words, a coward,
Dies in rhymes, so humble.
A thick pall of unfortunity,
With a sick snare for tumble.

Loath of meat surmounts the skeleton,
Who rides the heart, often mistaken.
There goes Cupid,
Aiming like a stupid,
Misses the arrow —
And falls into pits of sorrow.

Drunken Cupid, too late to dare,
Anomalies are all the story’s spare

बचपन के भूले गीत:मुफ़लिसी

 रूठ जाते हो तुम क्यों अमूमन यूं ही,
टूट के बिफ़र जाते हैं निशा के रंग भी।
अंदाज़ का जो ख़याल आता है,
तो आईने ये कह देते हैं — मुस्कुरा दो।

क्यों जीना यूं मुफ़लिसी में ज़िंदगी,
ये तो अदा है उनकी,
जिनसे सज गई है ज़िंदगी।

lost and forgotten juveniles poems: Of Nobody's use

 Nobody appreciated it,
because nobody understood.
And when those nobodies didn’t understand,
it became of nobody’s use.

Those nobodies mocked their own inefficiency
to ever grasp it —
and to compensate for their later understanding,
they wrote a few books —
which are of nobody’s use

बचपन के भूले गीत: अधूरी गुफ्तगू

 वो गुफ़्तगू थी जो कहीं सगूफ़ों में
एक याद बनकर रह गई है।
कहीं सुनाई देती है उस झंकार की फ़नकार,
तो वाह-वाही से महफ़िल सज जाती है।

वो नाम अब भी गुमनाम है,
शायद उनसे कोई गुफ़्तगू अब भी बाक़ी रह गई हो।

lost and forgotten juveniles poems: Distant hops of a rabbit

 We were once ago,
sometime not too past,
sitting back, admiring rare thoughts
just passed.

What it was — don’t know,
and could never know till now.
A few weeks of surrender,
then lost — just a "habit" somehow?

And days pass,
like the distant hops of a rabbit.
But I disagree — I still
look into that well,
except now its water is dry,
and voices never return from the dark void.

I fill it —
in hope I might see my reflection again,
hear some topples,
the wobbling of waves —
all left behind.
But their turbulence still troubles

बचपन के भूले गीत: खुली आँखों से सपना देख लो ।

आंख लग गई है,
तो सोना बुरी बात है।
खुली आंखों से सपना ही देख लो,
ये अलग बात है।

आंख लग जाएगी तो
कश्ती डूब जाएगी,
ज़िंदगी की कोई कल्पना ही करके देख लो,
ये अलग बात है।

lost and forgotten juveniles poems: All in a day's fuck is the shimmer

All in a day's fuck is the shimmer—
the beauty, the charm,
the charisma rising from ailment.

So-called 'dreams,'
which, much thought after a good hard death of the day,
vanish, apparently...

Loving my job. Weird."*

lost and forgotten juveniles quotes.

 1)I never knew that word, for I never felt it.
     And now, when I feel it, I don’t know the word.

2) If we learn to walk on the straight path of truth,
    we’ll never need to climb the mountain of lies.

3) In the meantime, I learned to mock my sadness,
    and now, I don’t know what my smiles really mean...

4) Life on faster track slower destiny, 
    i lost myself there, where i wanted to be me.

5) Juvenile dreams are meant to be
forgotten in adulthood
and remembered by living them.
Don't try it, don't chase it—just live it.

6) Senses deceive, and perceptions may deceive as well.
I don't see the world through your eyes—because I have my own.
And that is what makes me imperfectly perfect.
At most, I could be a mirror to you.
The least you can do is clean this mirror as often as possible.
That is how you can make me mean to you what I am meant to be

7)
"A friend once said to me, 'I take my liberty from you.'
Here’s something for you, my friend: 'You are the liberty I have.'"

8) "It's only when we learn to read through true intentions that we can truly communicate better. Words sometimes mean nothing."

बचपन के भूले गीत: ये आधी-अधूरी सी ज़िंदगी।

 ये आधी-अधूरी सी ज़िंदगी,
सुस्त चाल में चलने की मनसा से,
रुकी हुई सी, चलती सी प्रतीत होती,
पर रेंग-रेंग कर भी बढ़ने की ख्वाहिश में
'बढ़ती हुई' समझने का भ्रम पालकर,
आगे भी नहीं देख पाती।

बस चंद कदमों की आहट लिए थी,
हौसला-अफ़ज़ाई को, ताकि कोई मंज़िल,
जो श्रम पर आधारित परिभाषित है,
उस तक पहुँचने को प्रयत्नशील हुई तो थी।
पर निरंतर इस प्रयास को जारी रखने के लिए,
जो पदचाप सुनाई देते थे, वे धूमिल हो गए हैं
दसों दिशाओं में।

और बढ़ने को ललायित ये 'कदम',
हर दिशा के होकर रह गए हैं।

फिर जब नींद टूटी, तो पाया—
कि हम एक पग भी न चले थे,
और वह पदचाप की आवाज़,
हमारे कानों की एक गूंज भर थी।

बचपन के भूले गीत: एक चहकती चिड़िया ।

 एक चहकती, बहकती सी चिड़िया थी,
एक महकती हुई सी फूलबगिया थी।
मिठास से भरी उसकी कुक-कुक से
गूंज उठी जब बगिया थी,
निशा की बेला तब छुपने को आई थी,
नव में ऊषा की ताज़गी छाई थी।
वो फुदकती, चहकती चिड़िया,
उजालों का एक संदेशा लाई थी।

lost and forgotten juveniles poems: Mirror in my room

 "Bizarre! I stood past a mirror in my room,

when, after long, there I stood—
maybe a decade or two.
The mirror smiled and said:
'Who are you?
You are not the person I once knew...'"

lost and forgotten juveniles poems: And Till we find our "she"

life pursuits some fairy tales, 
illusions we see, 
illusions we hear, 
deluded we are left, 
deluded we are spared. 

hallucionist junkie we live as, 
a mockery monkey 
dancing on some jamura beats 
and then a banana is all 
for what the monkey lives. 

Friday, March 14, 2025

रंगों में बहती माया




 जीवन-जगत—माया,
बहती रंगों की नदिया बन के,

चेतन–जीवो-रूपण,
बिखरती रंगों की दुनिया बन के

इल्म न रहा

इतने टूटे हैं कि,
टूटने का इल्म न रहा

इतने बिखरे हैं कि,
सिमटने का इल्म न रहा

तुम्हें चाहते हैं इतना कि,
अब ख़ुद के होने का इल्म न रहा

ख़ुद में देखा है तुम्हें इतना कि,
आईनों में अक्स का इल्म न रहा

ख़ुदाई तुममें देखी है इतनी कि,
ख़ुदा के होने का इल्म न रहा

वस्ल की चाहतें इतनी हैं कि,
हौसलों में फ़ासलों का इल्म न रहा। 



ख़ुमारी बने बादल

 एहसास-ए-लफ़्ज़! :

ख़ुमारी बने बादल


ये मेरे निर्मोही क़दम, क्यों तुझ तक ले जाएँ ना,
ये ख़ुमारी बने बादल, क्यों तुझको फिर बरसाएँ ना।

ये वक़्त की साक़लें, ये बेबसी की बेड़ियाँ,
ये धड़कनों की नादें, यादें बनी बेसब्रियाँ।
फिर से तू क्यों मुझे आज़माए ना,

ये मेरे निर्मोही क़दम, क्यों तुझ तक जाएँ ना,
ये ख़ुमारी बने बादल, क्यों तुझको फिर बरसाएँ ना।

अंधक उसूल हैं, या बंधक रसूल है,
या ख़ुदा, मुझमें मेरा सा आज़ बेख़बर सा क्यों है।
मेरी मुझसे क्यों तू पहचान कराए ना,

वो ख़्याल, जो दरख़्त बन के मुझमें उग आया है,
ख़िज़ां हुई शाख़ों पे, प्यार के फूल क्यों तू खिलाए ना।

ये मेरे निर्मोही क़दम, क्यों तुझ तक ले जाएँ ना,
ये ख़ुमारी बने बादल, क्यों तुझको फिर बरसाएँ ना।

ऐ प्रियतमा मेरी, क्यों तू मुझमें फिर उतर आए ना,
साँसों में गिरती ज़िंदगी में, तू क्यों फिर समाए ना।
यादों की तरह, क्यों तू भी आए ना।

ग़ज़ल:

ख़ुमारी बने बादल। 


 ये मेरे निर्मोही क़दम क्यों तुझ तक जाए ना,
 ख़ुमारी बने बादल, तुझको क्यूं बरसाए ना।

 वक़्त की साकलें,  हैं बेबसी की बेड़ियाँ,
धड़कनों की नाद-ए -हद, अनहद क्यूँ बन जाए ना।

 बेखयाली जो दरख़्त बनकर मुझमें उग आया ,
 ख़िज़ां की शाखों पे प्रेम -सुमन क्यूं तू खिलाए ना।

 अंधक उसूल हैं या बंधक रसूल है,
मुझमें ही मेरा अक्स क्यूं मुझको नज़र आए ना।

 साँसों में गिरती ज़िंदगी में है तेरा निशाँ,
तेरी ही याद क्यूं फिर मुझमें समाए ना।

 ओ मेरी प्रियतमा, क्यूं तू मुझमें उतर आए न,
ख़्वाबों में है जो सूरत, आँखों में समाए ना।


ग़ज़ल

तुम रूठते नहीं, तो हम मनाएँ कैसे,
हुनर-ए-मनाने को फिर आज़माएँ कैसे?

कितनी धड़कनें बिन धड़के गुज़र गईं,
दहशत-ए-गर्दिश-ए-मंजर दिखाएँ कैसे?

गुफ़्तगू करती हैं ख़ामोशियाँ तेरे–मेरे दरमियाँ,
अंजाम-ए-क़त्ल की दास्ताँ सुनाएँ कैसे?

तसव्वुर में अब भी है तेरी रानाई,
इस बेकरार दिल को फिर बहलाएँ कैसे?

ख़्वाब टूटते हैं तेरी तलब में रोज़,
इस हिज्र की शिद्दत को छुपाएँ कैसे?

बता दो कि अब भी है कोई निस्बत,
'वृहद' इस मोहब्बत को बचाएँ कैसे?

मेरी शायरी ।

१  

ग़र मेरे रूह-ए-सुकून का इल्म है तुझे दिलनशीन,

तो ये भी मान कि ज़ुल्मत-ए-शब भी तुझसे ही है।

तेरा ही नाम लेकर रौशन किए थे दिल के चराग़,

मगर अफ़सोस, इस रोशनी में साया भी तुझसे ही है।

२ 

ये मेरे यक़ीन का इम्तिहान है, 
कि हूँ तेरे दिल में मैं भी कहीं।


तेरी बिरहा की तड़प बता रही है, 
कि हूँ तुझमें ज़िंदा मैं अब भी कहीं।


३ 

बर्बादियों के आख़िरी मंज़र की अंजुमन में,

ख़याल बरबस यूँ उतर आया…

तेरी दीद की थोड़ी सी धूप दिख जाए,

बसर-ए-नूर का आबे-हयात छलक जाए…


बहर-दर-बहर अशआर बहे इस क़दर,
बे-वफ़ा यार में बुझ गए शब ओ सहर।

इतनी बेगारी में बैठे है

तसव्वुर ए यार लिखते हैं

न कुछ कहते हैं न सुनते हैं

तेरी याद में तुझे लिखते हैं


बेख्याली, बेदिली का अलम न पूछो

ए मुश्यरे-दीदों

की यादों से ख़ाक हो सनम लिखते हैं



आपके शब-ए-ग़म की महफ़िलों के, दीवाने तो थे बहौत,
हम शब-ए-तन्हाई में, जुगनू बने, लशकारे बिखेरते रहे।

७ 

तुम आये मेरे जिंदगी में ऐसे
उमसाई गर्मी में गिरती हो बारिश जैसे।

८ 

तुम "हाँ" जो कह दो,
तुम्हारे ज़ख्मों को चूमकर आज़ाद कर दूं,
जो तुम इन्हें सहेजना चाहो,
इन्हें गीतों और ग़ज़लों में आबाद कर दूं।



मतला से मक़ता तक एक सिलसिला चला,
उनके हुस्न का हर बयाँ ग़ज़ल हो चला। 

१०
तसव्वुर से बज़्म, बज़्म से रुख़सत,
यूँ मुकम्मल हुई एक ज़िन्दगी।

रुख़सत से तनहाई, तनहाई से ख़ामोशी,
ख़ामोशियों में ही आबाद रही एक ज़िन्दगी।

११ 
हर वो शख्स जो बीता हुआ कल होता है,
जाने क्यों दिल आज भी उनको बुनता रहता है।

१२ 
वो ढूंढता रहा मुझसे दूर जाने के बहाने,
बहानों  में खोजता रहा मैं पास आने के तराने।

१३
तू न आया सनम, तेरा पैगाम आया,
तेरा मुझमें होने का, इल्ज़ाम आया।

१४ 
तुम न मिले थे, तसव्वुर-ए-इश्क़ इबादत था,
मिल के क्या गए, वजूद-ए-इश्क़ वहशत हो गया।

१५ 

शेर - दोस्ती और आज़ादी

एक रोज़ मेरे खास दोस्त ने कहा था—
"सोचो तो मिलकर दोस्त, मैं तुझमें अपनी आज़ादी की सहर देखती हूँ।"
मैंने मुस्कुराकर कहा—
"तू ही तो मेरी अभिव्यक्ति की अंतिम आज़ादी है, इस बेग़ैरत दुनिया में!"




Wednesday, March 12, 2025

तिशनगी में तृप्ति बसर हो…

 तेरी उम्मीद की लौ जले,
जैसे तेरी दीद का असर हो…

तेरा ज़िक्र — हर बात में,
जैसे कोई दूसरा हमसफ़र हो…

मरु में मृगतृष्णा बन तू चले,
"वृहद" जैसे तिशनगी में तृप्ति बसर हो…



मौन, चुप्पी और अहंकार का दुर्ग:-


तुम्हारी प्रेम-चेतना मानो बिखरने को थी,
पर तुमने अहंकार की ऐसी दुर्ग रच डाली,
कि अब तुम्हारा अहंकार ही
तुम्हारे अस्तित्व का पर्याय बन गया।

तुम्हारे मौन में अब कोई मौज नहीं बची,
वो मौन जो कभी सृजन था, संवाद था —
अब बस एक चुप्पी है,
एक बोझिल, अर्थहीन ख़ामोशी।

प्रेम की छटा जो थोड़ी बिखरने को होती,
तुम्हारे अहंकार के झरोखों से झाँकने लगती —
तो मानो अहंकार की छाया, मौन का पहरेदार,
तुम्हें आ घेरता,
और तुरंत बंद कर देता वो झरोखे।

तुमने जो दीवारें खड़ी की थीं,
अब उन्हीं में क़ैद होकर रह गए हो,
प्रेम तो अब भी द्वार पर खड़ा है,
मगर तुम्हारा मौन, उसे सुनने से इनकार करता है।

पर जानते हो?
इस चुप्पी के पार भी एक सन्नाटा है,
जहाँ तुम्हारा अहंकार भी थक कर सो जाता है,
वहाँ अब भी प्रेम साँस लेता है —
धीमे, मगर जीवित।

बस एक कदम है,
इस ऊँची दीवार को लाँघने का,
बस एक पुकार है,
उस सिमटी हुई प्रेम-चेतना को बिखेरने की।

मगर तुम जड़ बने खड़े हो,
अपनी ही बनाई कैद में —
जहाँ तुम्हें डर है कि,
अगर अहंकार गिरा,
तो शायद तुम्हारा पूरा वजूद ही
बिखर जाएगा।

पर यक़ीन मानो,
वो बिखरना ही तुम्हारा सृजन है,
वहीं से जन्म लेगा एक नया तुम —
जिसमें मौन भी गाएगा,
और प्रेम भी बह निकलेगा।

और आखिर में, ये सच्चाई देखो —
अहंकार की ऊँची अट्टालिकाएँ,
संसार के दिए नाम ओ नक़ाब —
ये जान लो, विप्र, ये तुम्हारी पहचान नहीं।

इन अहंकार के दुर्ग में छुपी
वो मासूम सी, उड़ने को बेताब चिरैया — बेनाम,
वो ही तो असली तुम हो,
जिसे तुमने ख़ुद अपने ही हाथों से कैद कर दिया है।

अब उस चिरैया को उड़ने दो,
उस प्रेम को बहने दो,
अहंकार की छाया को पिघलने दो,
मौन को गाने दो।

वो बिखराव ही तुम्हारा सृजन है,
वही तुम्हारा असली होना है।

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