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Wednesday, March 12, 2025

मौन, चुप्पी और अहंकार का दुर्ग:-


तुम्हारी प्रेम-चेतना मानो बिखरने को थी,
पर तुमने अहंकार की ऐसी दुर्ग रच डाली,
कि अब तुम्हारा अहंकार ही
तुम्हारे अस्तित्व का पर्याय बन गया।

तुम्हारे मौन में अब कोई मौज नहीं बची,
वो मौन जो कभी सृजन था, संवाद था —
अब बस एक चुप्पी है,
एक बोझिल, अर्थहीन ख़ामोशी।

प्रेम की छटा जो थोड़ी बिखरने को होती,
तुम्हारे अहंकार के झरोखों से झाँकने लगती —
तो मानो अहंकार की छाया, मौन का पहरेदार,
तुम्हें आ घेरता,
और तुरंत बंद कर देता वो झरोखे।

तुमने जो दीवारें खड़ी की थीं,
अब उन्हीं में क़ैद होकर रह गए हो,
प्रेम तो अब भी द्वार पर खड़ा है,
मगर तुम्हारा मौन, उसे सुनने से इनकार करता है।

पर जानते हो?
इस चुप्पी के पार भी एक सन्नाटा है,
जहाँ तुम्हारा अहंकार भी थक कर सो जाता है,
वहाँ अब भी प्रेम साँस लेता है —
धीमे, मगर जीवित।

बस एक कदम है,
इस ऊँची दीवार को लाँघने का,
बस एक पुकार है,
उस सिमटी हुई प्रेम-चेतना को बिखेरने की।

मगर तुम जड़ बने खड़े हो,
अपनी ही बनाई कैद में —
जहाँ तुम्हें डर है कि,
अगर अहंकार गिरा,
तो शायद तुम्हारा पूरा वजूद ही
बिखर जाएगा।

पर यक़ीन मानो,
वो बिखरना ही तुम्हारा सृजन है,
वहीं से जन्म लेगा एक नया तुम —
जिसमें मौन भी गाएगा,
और प्रेम भी बह निकलेगा।

और आखिर में, ये सच्चाई देखो —
अहंकार की ऊँची अट्टालिकाएँ,
संसार के दिए नाम ओ नक़ाब —
ये जान लो, विप्र, ये तुम्हारी पहचान नहीं।

इन अहंकार के दुर्ग में छुपी
वो मासूम सी, उड़ने को बेताब चिरैया — बेनाम,
वो ही तो असली तुम हो,
जिसे तुमने ख़ुद अपने ही हाथों से कैद कर दिया है।

अब उस चिरैया को उड़ने दो,
उस प्रेम को बहने दो,
अहंकार की छाया को पिघलने दो,
मौन को गाने दो।

वो बिखराव ही तुम्हारा सृजन है,
वही तुम्हारा असली होना है।

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