इतने बिखरे हैं कि,
सिमटने का इल्म न रहा
तुम्हें चाहते हैं इतना कि,
अब ख़ुद के होने का इल्म न रहा
ख़ुद में देखा है तुम्हें इतना कि,
आईनों में अक्स का इल्म न रहा
ख़ुदाई तुममें देखी है इतनी कि,
ख़ुदा के होने का इल्म न रहा
वस्ल की चाहतें इतनी हैं कि,
हौसलों में फ़ासलों का इल्म न रहा।
Ghazal version:
इतने टूटे हैं कि,
टूटने का भी इल्म न रहा।
इतने बिखरे हैं कि,
सिमटने का भी इल्म न रहा।
तुम्हें चाहा इस क़दर,
कि ख़ुद के होने का इल्म न रहा।
आईनों में ढूँढा तुम्हें इतना,
कि अपने अक्स का इल्म न रहा।
तेरे जल्वों में देखा रब को,
अब ख़ुदा के होने का इल्म न रहा।
‘वृहद’ वस्ल की आरज़ू में ऐसे जिए,
कि फ़ासलों का भी इल्म न रहा।