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Sunday, June 15, 2025

💔 ग़ज़ल: रफ़्ता रफ़्ता

 

✍️ तख़ल्लुस: वृहद


   भूमिका (शेर):

"उनसे मिले पर बना न कोई राब्ता,
हो गए जुदा हमसे वो रफ़्ता रफ़्ता।"

कुछ रिश्ते बिना अल्फ़ाज़ टूट जाते हैं —
ना शिकवा, ना शिकायत...
बस एक खामोश दरार
जो रफ़्ता रफ़्ता दरम्यान आ जाती है।


💔 ग़ज़ल

मुसलसल गुफ़्तगू बहती रही रफ़्ता रफ़्ता,
तड़प वस्ल की सुलगती रही रफ़्ता रफ़्ता।

फ़ासलों में क़ैद थी दो दिलों की आरज़ू,
जाने कब इक दरार आ गई रफ़्ता रफ़्ता।

कहा कुछ भी नहीं, इशारों में था राज़ छुपा,
दुखती रगों को वो छेड़ती गई रफ़्ता रफ़्ता।

नज़रों की आरज़ू का वो सदा देते रहे वास्ता,
फ़ासलों में तीसरे को छुपा गई रफ़्ता रफ़्ता।

हम समझते रहे फ़ासले जिस्म के हैं मगर,
दिल से भी रुख़्सत करती गईं रफ़्ता रफ़्ता।

तेरे रूठने पे, एक रोज आए दर पे तेरे वृहद,
तालीम-ए-इल्म-ए-हिज्र दे गईं रफ़्ता रफ़्ता।

नाज़िल हुई ग़ज़ल में, जैसे उतरती कोई हूर हो,
हम रदीफ़ रहे, काफिया बदलती गईं रफ़्ता रफ़्ता।


~वृहद 

Saturday, May 31, 2025

🚭 “कायेकू यार?” – एक ग़ज़ल, एक तंज़, एक चेतावनी

(विशेष प्रस्तुति: तंबाकू निषेध दिवस – 31 मई)

आज विश्व तंबाकू निषेध दिवस है।
लेकिन क्या सचमुच हम तंबाकू से ‘निषेध’ कर पाए हैं? या फिर बस नाम की मुहिमों में हिस्सा लेकर, फिर उसी गुमटी की ओर मुड़ जाते हैं?

ग़ज़ल एक समय में इश्क़ की ज़ुबान थी, आज इसे हमने समाज के ज़हर को आइना बना दिया है।
गुटका, सिगरेट, तंबाकू – जो कभी बुराई थी, अब आदत बन चुकी है।
लेकिन इस आदत की कीमत है — साँसें, ज़ुबां, होठ, और फिर ज़िंदगी।

आज के दिन, ये ग़ज़ल उनके लिए है — जो अब भी कहते हैं: "एक कश और..."

Monday, March 31, 2025

वो जो बन गया था वजूद मेरा।

 (यह ग़ज़ल ध्यान, तन्हाई, और जुदाई के भावों से भरी हुई है)

वो जो बन गया था वजूद मेरा,
उसे अब और तलाशूँ किसमें?
चहुँ ओर नूर तेरे एहसास का,
नूर-ए-शिफ़ा अब उतारूँ किसमें?

तेरी सोहबत में, दुनिया से बेखबर मैं,
सुकून-ए-हयात बसाऊँ किसमें?
दिल जो महका था तेरे फ़िक्र-ओ-फ़न से,
अब उजड़े मकाँ को सजाऊँ किसमें?

तेरी नज़रों के वारे थे,
कि दिल भी हारा, जहाँ भी हारा।
अब उस तीर-ए-नज़र का असर,
इस वीरां दिल में बचाऊँ किसमें?

राहतें और सही, वस्ल की राहत के सिवा,
इन ख़ाली रातों के जुगनू जलाऊँ किसमें?

Friday, March 28, 2025

अधूरे लफ़्ज़

सद-ए-सुकूत (मौन की आवाज़)

सद-ए-ख़ामोशी में मौन उतरा,
वो शख़्स न था, ये कौन उतरा?

नाद-ए-अनहद का जो भोर हुआ,
अनहद के भोर में, ये कौन उतरा?

चित्त-मन सरवर में लहरें थमीं,
दरिया-ए-सुकून में फिर कौन उतरा?

वृहद तिश्नगी जो तृप्त हुई,
आब-ए-हयात सा कौन उतरा?

टूटी तृष्णा, टूटे भ्रम सारे,
मिट गया वृहद तृण-तृण,
चैतन्य ये पुरुष कौन उतरा?




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सद-ए-सुकूत (मौन की आवाज़)

सद-ए-ख़ामोशी में मौन उतरा,
वो शख़्स न था—ये कौन उतरा?

अनहद नाद का ज्वार उठा,
उस शोर को सुनता ये कौन उतरा?

लहरें थमीं चित्त-सरवर में,
दरिया-ए-सुकून में फिर कौन उतरा?

वृहद तिश्नगी जब तृप्त हुई,
अमृत सा बरसा—ये कौन उतरा?

टूटी तृष्णा, मिटे भ्रम सारे, वृहद मिटा,
चैतन्य में जागा—कौन उतरा?

सद-ए-सुकूत (ग़ज़ल)

सद-ए-ख़ामोशी में मौन उतरा,
वो शख़्स न था—ये कौन उतरा?

अनहद नाद उठा जब दिल में,
उस शोर को सुनता कौन उतरा?

लहरें थमीं जब चित्त-मन सरवर में,
दरिया-ए-सुकूँ में डूबा कौन उतरा?

टूटी तृष्णा, मिटे भ्रम सारे,
वृहद मिटा—पर कौन उतरा?

सदियों से जो खोज रहा था,
आख़िर में मुझमें कौन उतरा?

जागी नज़रों में रौशनी सी,
इस दिल के भीतर कौन उतरा?

ख़ुद को भी पहचाना जब मैंने,
आईना बोला—"कौन उतरा?"

वृहद तिश्नगी जब बुझ भी गई,
अमृत सा बरसा—कौन उतरा?

Tuesday, March 18, 2025

फ़रेब था।

सोहबत का शिकवा नादानी थी,
तसव्वुर में रहना फ़रेब था।
निगाहों की मंज़िल थी दरिया मगर,
किनारों का कहना फ़रेब था।

बज़्म-ए-रिंदाँ में शाक़ी भी रिंद,
खुमारों का रंग इक फ़रेब था।
सुबू और साग़र की हक़ीक़त कहाँ,
बहारों का गहना फ़रेब था।

जिन्हें हमने समझा था साक़ी यहाँ,
उनकी मुरव्वत भी इक फ़रेब था।
लबों की हँसी में छुपे थे शिकस्त,
मुस्कानों का गहना फ़रेब था।

एक अहद पर ज़िंदगानी बसर,
ज़िंदगानी का शुऊर फ़रेब था।
जो लफ़्ज़ों में सच था, हक़ीक़त में क्या,
हर इक मा'नी में बस फ़रेब था।

वृहद, तेरा हर इक फ़साना यहाँ,
हक़ीक़त का चेहरा फ़रेब था।

~ वृहद

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