तुकों में खेलता, उलझता रहता था मैं, बस,
यही सोचता, क्यों हैं ये लफ़्ज़ इतने दिलकश।
यही सोचता, क्यों हैं ये लफ़्ज़ इतने दिलकश।
इन तुकों का क्या करूँ, कैसे ढालूँ एहसास,
लिखूँ तो क्यों बिखर जाए, चुप रहूँ तो कश्मकश।
लफ़्ज़ों में रखूँ आग, या पानी कर दूँ इन्हें,
अश्कों में भीग जाएँ, या शोला बनें बेबस।
काग़ज़ की ये सतह भी कुछ कहती है मुझसे,
लिखने को बेचैन हूँ, फिर भी हूँ ख़ामोश बस।
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