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Tuesday, March 18, 2025

फ़रेब था।

सोहबत का शिकवा नादानी थी,
तसव्वुर में रहना फ़रेब था।
निगाहों की मंज़िल थी दरिया मगर,
किनारों का कहना फ़रेब था।

बज़्म-ए-रिंदाँ में शाक़ी भी रिंद,
खुमारों का रंग इक फ़रेब था।
सुबू और साग़र की हक़ीक़त कहाँ,
सुरूरों का रहना फ़रेब था।

जिन्हें हमने समझा था साक़ी यहाँ,
उनकी मुरव्वत भी इक फ़रेब था।
लबों की हँसी में छुपे थे शिकस्त,
मुस्कानों का बहना फ़रेब था।

एक अहद पर ज़िंदगानी बसर,
ज़िंदगानी का शुऊर फ़रेब था।
जो लफ़्ज़ों में सच था, हक़ीक़त में क्या,
हर इदराके  पैमाना फ़रेब था । 

वृहद, तेरा हर इक फ़साना यहाँ,
हक़ीक़त का चेहरा फ़रेब था।

~ वृहद

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