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Monday, March 31, 2025

तुमने पूछा है ख़याल दिल का।

तुमने पूछा है, ख़याल दिल का,
कह भी दूँ कैसे ये हाल-ए-दिल का।

सोचता हूँ अंदाज़, उस पहली बात का,
खुला जो राज़, हिज्र-ए-यार, विसाल दिल का।

सवाल है एक, उस पहली मुलाक़ात का,
जो सिलसिला न बना, बस मलाल दिल का।

गुमाँ था लौटोगे, लेने हाल-ए-दिल का,
रह गया ख़ाम-ख़याल, बेहाल दिल का।

जवाब क्या दूँ, अब तेरे सवाल का,
एहसास-ए-खामोश, बदहाल दिल का।

वर्ज़न-२ 

तुमने पूछा है, क्या ख़याल-ए-दिल का,
कह भी दूँ कैसे ये हाल-ए-दिल का।

सोचता हूँ मैं फिर वही एक लम्हा,
खुल गया था जो इक विसाल-ए-दिल का।

रह गया बस मलाल उस मुलाक़ात का,
जो बना ही नहीं कमाल-ए-दिल का।

गुमाँ था कि आओगे लेने ख़बर तुम,
रह गया बस ग़ुबार हाल-ए-दिल का।

क्या कहूँ अब मैं तेरे इन सवालों,
सिर्फ़ खामोश है मलाल-ए-दिल का।



वो जो बन गया था वजूद मेरा।

 (यह ग़ज़ल ध्यान, तन्हाई, और जुदाई के भावों से भरी हुई है)

वो जो बन गया था वजूद मेरा,
उसे अब और तलाशूँ किसमें?
चहुँ ओर नूर तेरे एहसास का,
नूर-ए-शिफ़ा अब उतारूँ किसमें?

तेरी सोहबत में, दुनिया से बेखबर मैं,
सुकून-ए-हयात बसाऊँ किसमें?
दिल जो महका था तेरे फ़िक्र-ओ-फ़न से,
अब उजड़े मकाँ को सजाऊँ किसमें?

तेरी नज़रों के वारे थे,
कि दिल भी हारा, जहाँ भी हारा।
अब उस तीर-ए-नज़र का असर,
इस वीरां दिल में बचाऊँ किसमें?

राहतें और सही, वस्ल की राहत के सिवा,
इन ख़ाली रातों के जुगनू जलाऊँ किसमें?

Saturday, March 29, 2025

इश्क़-ए-शिकस्त

इश्क़-ए-शिकस्त में ये ठौर ठहरी,
फ़ेहरिस्त-ए-आशिक़ी में हम नहीं।

शिफ़ा-ए-रंजिश क़ुर्बत ही सही,
रुसवाई की मौजों में, थे हम नहीं।

बग़ावत-ए-हुस्न में शहादत ही सही,
तेरे ज़िक्र-ओ-गुमान तक में हम नहीं।

तग़ाफ़ुल-ए-यार में हम रहगुज़र नहीं,
मगर तेरी राहों के ख़ार में हम नहीं।

'वृहद' अपनी रंजिश में इतना क्यूँ है,
जिसे चाहा था, अब वो ही हम नहीं।

updated with meter correction:

इश्क़-ए-शिकस्त में ये ठौर ठहरी,
फ़ेहरिस्त-ए-आशिक़ी में हम नहीं।

शिफ़ा-ए-रंजिश में क़ुर्बत ही सही,
रुसवाई की मौज में थे हम नहीं।

बग़ावत-ए-हुस्न में जान दी हमने,
तेरे ज़िक्र-ओ-गुमान में हम नहीं।

तग़ाफ़ुल-ए-यार में हम ना सही,
तेरी राह के ख़ार भी हम नहीं।

‘वृहद’ को रंजिश है, इल्ज़ाम क्यों हो,
जिसे चाहा था, अब वो ही हम नहीं।


Friday, March 28, 2025

अधूरे लफ़्ज़

सद-ए-सुकूत (मौन की आवाज़)

सद-ए-ख़ामोशी में मौन उतरा,
वो शख़्स न था, ये कौन उतरा?

नाद-ए-अनहद का जो भोर हुआ,
अनहद के भोर में, ये कौन उतरा?

चित्त-मन सरवर में लहरें थमीं,
दरिया-ए-सुकून में फिर कौन उतरा?

वृहद तिश्नगी जो तृप्त हुई,
आब-ए-हयात सा कौन उतरा?

टूटी तृष्णा, टूटे भ्रम सारे,
मिट गया वृहद तृण-तृण,
चैतन्य ये पुरुष कौन उतरा?




version 2 

सद-ए-सुकूत (मौन की आवाज़)

सद-ए-ख़ामोशी में मौन उतरा,
वो शख़्स न था—ये कौन उतरा?

अनहद नाद का ज्वार उठा,
उस शोर को सुनता ये कौन उतरा?

लहरें थमीं चित्त-सरवर में,
दरिया-ए-सुकून में फिर कौन उतरा?

वृहद तिश्नगी जब तृप्त हुई,
अमृत सा बरसा—ये कौन उतरा?

टूटी तृष्णा, मिटे भ्रम सारे, वृहद मिटा,
चैतन्य में जागा—कौन उतरा?

सद-ए-सुकूत (ग़ज़ल)

सद-ए-ख़ामोशी में मौन उतरा,
वो शख़्स न था—ये कौन उतरा?

अनहद नाद उठा जब दिल में,
उस शोर को सुनता कौन उतरा?

लहरें थमीं जब चित्त-मन सरवर में,
दरिया-ए-सुकूँ में डूबा कौन उतरा?

टूटी तृष्णा, मिटे भ्रम सारे,
वृहद मिटा—पर कौन उतरा?

सदियों से जो खोज रहा था,
आख़िर में मुझमें कौन उतरा?

जागी नज़रों में रौशनी सी,
इस दिल के भीतर कौन उतरा?

ख़ुद को भी पहचाना जब मैंने,
आईना बोला—"कौन उतरा?"

वृहद तिश्नगी जब बुझ भी गई,
अमृत सा बरसा—कौन उतरा?

Thursday, March 27, 2025

कुछ मंज़िलें थीं, जो सफ़र हो गए ।

 



कुछ मंज़िलें थीं, जो सफ़र हो गए,
वजूद-ए-मंज़र रहगुज़र हो गए।

कुछ फ़ासले थे, जो मिट गए,
जब इक नज़्म में मुकम्मल हो गए।

जो लफ़्ज़ अधूरे थे, ख़ामोशियों में,
तेरे एहसास में ग़ज़ल हो गए।

कभी धूप थी, जो सिरहाने रुकी,
तेरी छाँव की आहट में सहर हो गए।

कुछ अरमान थे, सिर्फ़ कागज़ पे लिखे,
तेरी नज़रों की तलब में बहर हो गए।

तेरी यादों में बने अल्फ़ाज़ सुख़न हो गए,
जो भूले से थे लफ़्ज़, वो रहबर हो गए।

Saturday, March 22, 2025

दास्तान-ए -वर्जिश

 जिस्म टूटता है लौह के आशियाँ में कतरा-कतरा,
होती ही रूबरू तन की ख़्वाहिशें कतरा-कतरा।

लहू में तपिश, सांस में शोले लिए फिरता हूँ,
यूँ ही नहीं बनते हैं बाजू फौलादी कतरा-कतरा।

दर्द भी हंस पड़ा इस कड़ी आज़माइश पर,
जब मैं पिघलने लगा अपनी ही आग में कतरा-कतरा।

आईनों में दिखता है अब सख़्त इक बदन,
जाने कितने दर्दों का हासिल है कतरा-कतरा।

मंज़िल ही सफ़र है जिस्म के दर्द का,
जिस्म माँगता है इक सज़ा कतरा-कतरा।

मक़ता:
वृहद ख़ुद को गढ़े लोहे की इस भट्टी में,
अब न झुकेगा किसी आँधियों में कतरा-कतरा।

वर्ज़न 2 

आग सी जल रही है रगों में, कतरा-कतरा,
ख़ून कहता है बढ़, हौसलों में, कतरा-कतरा।

लोहा उठता नहीं यूँ ही बाज़ू से, देखो,
दर्द बहता है सीने के ज़ख़्मों में, कतरा-कतरा।

वज़्न बढ़ता गया, हड्डियाँ चीख़ उठीं,
फिर भी ढलता रहा मैं लहू में, कतरा-कतरा।

आईनों में दिखी अब वो सख़्त इक शख़्सियत,
जिसने जोड़ा बदन अपने खंडों में, कतरा-कतरा।

मंज़िलें क्या हैं? बस और मेहनत करो,
रोज़ पिघला हूँ लोहे की भट्टी में, कतरा-कतरा।

मक़ता:
वृहद अब न रुकेगा किसी मोड़ पर,
ख़ुद को गढ़ता रहेगा क़सम में, कतरा-कतरा।

वेसरिऑन 3 

जिस्म टूटे है आग़ोश-ए-ग़म में, कतरा-कतरा,
रूह जलती रही शौक़-ए-दम में, कतरा-कतरा।

ख़ून में जोश है, आग़ है साँस में,
यूँ ही ढलते नहीं तीर-ओ-ख़म में, कतरा-कतरा।

दर्द हँसने लगा आज़माइश पे जब,
ख़ुद ही जलने लगा अपनी चम में, कतरा-कतरा।

अब जो आईने में अक्स सख़्त है,
दर्द घुलता रहा इस क़दम में, कतरा-कतरा।

मंज़िलें ही सफ़र बन गई हैं, मगर,
दर्द मिलता रहा हर क़सम में, कतरा-कतरा।

मक़ता:
वृहद अब न झुकेगा किसी आँधियों में,
आब दी है इसे अब क़सम में, कतरा-कतरा। 

Wednesday, March 19, 2025

ग़ज़ल – उनके हुस्न के संग ग़ज़ल मुकम्मल हो चली

मतला:

मतला से मक़ता तक एक सिलसिला चला,
उनके हुस्न का हर बयाँ ग़ज़ल हो चला।

मिसरा-ए-उला और मिसरा-ए-सानी का जादू देखो:

ज़ुल्फ़ों की गिरह में उलझते रहे शेर,
लब ने जो छेड़ा, बयाँ ग़ज़ल हो चला।

रदीफ़-काफ़िया का हुस्न:

आँखों में साक़ी का अंदाज़ भी था,
हर जाम में इक समां ग़ज़ल हो चला।

बहर की नज़ाकत और हुस्न की शोख़ी:

रुख़्सार पे शोले, लबों पर गुलाब,
हर रंग में इक नशा ग़ज़ल हो चला।

तखय्युल का जादू:

ख़ुशबू में लिपटा था हर इक हर्फ़ जैसे,
लिखते ही वो दास्ताँ ग़ज़ल हो चला।

हुस्न-ए-मक़ता (तखल्लुस के साथ):

'वृहद' उनकी नज़र से जो उतरा क़लाम,
महफ़िल में फिर बेग़ुमाँ ग़ज़ल हो चला।

Version 2:

मतला (पहला शेर):
मुरव्वत-ए-शाक़ी का फ़ुग़ाँ, ग़ज़ल हो चला
उनके भीगे बदन का नशा, ग़ज़ल हो चला
(मुरव्वत = मेहरबानी; शाक़ी = शराब परोसने वाला; फ़ुग़ाँ = आह, कराह)

1
मतला से मक़ता तक एक सिलसिला चला
उनके हुस्न का हर बयाँ, ग़ज़ल हो चला
(हुस्न = सौंदर्य; बयाँ = वर्णन)

2
लब थे उनके मिसरा-ए-सानी ओ उला,
हर इक सुख़न की दुआ, ग़ज़ल हो चला
(लब = होंठ; मिसरा-ए-सानी/उला = शेर की दूसरी/पहली पंक्ति; सुख़न = कविता/शब्द)

3
आँखों में साक़ी के जलवे थे जैसे,
हर जाम का कारवां, ग़ज़ल हो चला
(साक़ी = शराब परोसने वाला; जलवे = चमक, सौंदर्य; जाम = प्याला; कारवां = काफ़िला)

4
ख़ुशबू में लिपटा था हर इक हर्फ़ जैसे,
हर क़िस्सा-ए-नग़मा, ग़ज़ल हो चला
(हर्फ़ = अक्षर; क़िस्सा-ए-नग़मा = गीत की कहानी)

5
रुख़्सार पे जो फैली थी लाली सुब्ह-ए-चमन,
हर गुल का रंग-ए-फ़ना, ग़ज़ल हो चला
(रुख़्सार = गाल; सुब्ह-ए-चमन = बाग़ की सुबह; फ़ना = मिट जाना, लय हो जाना)

6
लटों में उनके उलझते रहे यूँ ही अश'आर,
घटाओं की रौ, इक सदा, ग़ज़ल हो चला
(लटें = बाल; अश'आर = शेर; रौ = बहाव, प्रवाह; सदा = आवाज़)

7
बहर दर बहर बहे अश'आर इस क़दर,
बज़्म-ए-सुख़न का जहाँ, ग़ज़ल हो चला
(बहर = छंद, मीटर; बज़्म-ए-सुख़न = कविता की सभा)

8
रदीफ़-ओ-क़ाफ़िए की शोख़ियाँ थीं जनाब,
रक्स में बलखाता समाँ, ग़ज़ल हो चला
(रदीफ़ = दोहराया जाने वाला अंतिम शब्द; क़ाफ़िया = तुकांत; शोख़ियाँ = चंचलताएं; रक्स = नृत्य)

9
तासीर-ए-तख़य्युल-ओ-तसव्वुर, की थी जो रंगत,
तस्वीर-ए-नज़्म का सफ़्हा, ग़ज़ल हो चला
(तासीर = असर; तख़य्युल = कल्पना; तसव्वुर = सोच, कल्पना की छवि; नज़्म = कविता; सफ़्हा = पन्ना)

10
चलने का था अंदाज़, ठहरने की थी अदा,
हर इक क़दम की रवाँ, ग़ज़ल हो चला
(अंदाज़ = तरीका; अदा = अदा, स्टाइल; रवाँ = प्रवाह, चाल)

11
वो ठहरे जो इक पल, रुकी साँस बनके,
जो उठे, तो धड़कन की ज़ुबाँ, ग़ज़ल हो चला

मक़ता (अंतिम शेर):
‘वृहद’ उनकी नज़रों से गिरते ही इस तरह,
महफ़िल में फिर बे-गुमाँ, ग़ज़ल हो चला
(बे-गुमाँ = बिना शक के, निर्विवाद रूप से)

Version 3

मतला से मक़ता तक इक सिलसिला चला,
उनके हुस्न का हर निशाँ, ग़ज़ल हो चला।

लब उनके हैं मिसरा-ए-सानी-ओ-उला,
लबों के सुख़न का बयाँ, ग़ज़ल हो चला।

लटें गेसुओं में उलझती रहीं इस क़दर,
बहारों में रंग-ए-समा, ग़ज़ल हो चला।

ख़ुशबू में लिपटा था हर इक हर्फ़ जैसे,
हर क़िस्सा-ए-नग़मा, ग़ज़ल हो चला।

बहर दर बहर अश'आर बहे इस क़दर,
सुख़न का नया इक जहाँ, ग़ज़ल हो चला।

रदीफ़-ओ-क़ाफ़िए की शोख़ियाँ थीं जनाब,
रक्स में बलखाता समाँ, ग़ज़ल हो चला।

तख़य्युल, तसव्वुर, तासीर की थी जो रंगत,
उनकी तस्वीर-ए-निहाँ, ग़ज़ल हो चला।

आँखों में साक़ी के जलवे थे जैसे,
हर जाम में था इक समाँ, ग़ज़ल हो चला।

'वृहद' उनकी नज़रों से गिरते ही यूँ,
महफ़िल में फिर बेग़ुमाँ, ग़ज़ल हो चला।

हर इक शोख़ी-ए-हुस्न लिख न सके 'वृहद',
ग़ज़ल अधूरी भी, फिर भी ग़ज़ल हो चला।

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