poet shire

poetry blog.

Saturday, November 24, 2018

जुदाई की वेदना

ऐ जाने वाले 
मुझसे जुदा होने पे,खुद पे ये जुल्म न कर
अभी बहुत आशियाँ देखने हैं तुझे 
हमने जो खोया एक दूजे से टूटकर 
उसके इल्जाम ए इल्म से बच 
तेरे आंखों में सपनो के समंदर देखे हैं मैंने
उन सपनो का बहिस्कार न कर।

तो क्या हुआ एक सितारा जो अति प्यारा था
वो टूट गया, एक साथी था जो छूट गया
वक़्त के नजाकत में खुद नाजुक न बन।
मेरी न सही खुद की कदर कर
तेरे सपनोँ के समन का इन्तेकाम न कर 
मैं तेरा न सही, तू खुद की अपनी तो है।

Sunday, November 18, 2018

गुट्बजों की नगरी, ये गगरी!

दुनिया एक गगरी जिसमे 
है बस गुटबाज़ी हरी-भरी।

न कोई मुल्ला यहां 
न यहां कोई बुद्ध
फिर भी हो रहा 
ये कैसा धरम युद्ध

न दिखते देवदूत कोई
न दिखता कोई पिसाच 
फिर भी करम परखते 
दिखता है बस इंसान यहाँ।

गुटबाज़ों की नगरी में है अपने ही तौर बसे 
तंज़ व्यंग को हीं, है धर्म ग्रंथ पड़े हुए
इनका हुआ ना कोई अनुयायी यहाँ
धर्म ग्रंथ के पन्नो की ना कोई परछाईं यहाँ।
सुर्ख होठों से जो,
राख की कीमत पूछ ली
वो जलते रहे 
इनकार के बहानो में।

बयां के रंग।

अंदाज़ ए बयां उनके, महताब से हैं
ये दिल के शिकन भी कह देते हैं
और शब ए ग़म झलकते भी नही।

बेताबियां ए उल्फत से खींच लेते हैं
अंजाम, जिक्र ए फिराक का 
और बताते भी नही 
ज़ुल्मत ए शब मिज़ाज़ का।

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