(विशेष प्रस्तुति: तंबाकू निषेध दिवस – 31 मई)
आज विश्व तंबाकू निषेध दिवस है।
लेकिन क्या सचमुच हम तंबाकू से ‘निषेध’ कर पाए हैं? या फिर बस नाम की मुहिमों में हिस्सा लेकर, फिर उसी गुमटी की ओर मुड़ जाते हैं?
ग़ज़ल एक समय में इश्क़ की ज़ुबान थी, आज इसे हमने समाज के ज़हर को आइना बना दिया है।
गुटका, सिगरेट, तंबाकू – जो कभी बुराई थी, अब आदत बन चुकी है।
लेकिन इस आदत की कीमत है — साँसें, ज़ुबां, होठ, और फिर ज़िंदगी।
आज के दिन, ये ग़ज़ल उनके लिए है — जो अब भी कहते हैं: "एक कश और..."
छोड़ो गुटका सिगरेट तंबाकू यार,
झूठी तलब में पड़ते कायेकू यार।
कैंसर खा गई ज़ुबां ओ साँसे यार,
भगत, नशे के बनते कायेकू यार।
छोड़ नशा, कर ले जीवन से प्यार,
उधार गुमटी पे रखते कायेकू यार?
कश मिटा न सका ग़म-ए-हयात,
दिल को यूँ बहलाते कायेकू यार?
कश ओ काश में कर अंतर यार,
ग़म धुएँ में यूँ उड़ाते कायेकू यार?
चुम्बन नहीं है सिगरेट का धुआँ,
होठों को यूँ जलाते कायेकू यार?
जीना जब है दिन गिन गिन चार,
जिस्म जलाते गलाते कायेकू यार?
जुबां केसरी कर गई सड़कें लाल,
सस्ती मौत यूँ चबाते, कायेकू यार?
तंबाकू में इश्क़, पाउच में जश्न?
इस धोखे में पड़ते कायेकू यार?
वृहद्वानी कहे जो वो सुन ले यार,
ख़ुद को यूँ मिटाते कायेकू यार?
~वृहद
झूठी तलब में पड़ते कायेकू यार।
कैंसर खा गई ज़ुबां ओ साँसे यार,
भगत, नशे के बनते कायेकू यार।
छोड़ नशा, कर ले जीवन से प्यार,
उधार गुमटी पे रखते कायेकू यार?
कश मिटा न सका ग़म-ए-हयात,
दिल को यूँ बहलाते कायेकू यार?
कश ओ काश में कर अंतर यार,
ग़म धुएँ में यूँ उड़ाते कायेकू यार?
चुम्बन नहीं है सिगरेट का धुआँ,
होठों को यूँ जलाते कायेकू यार?
जीना जब है दिन गिन गिन चार,
जिस्म जलाते गलाते कायेकू यार?
जुबां केसरी कर गई सड़कें लाल,
सस्ती मौत यूँ चबाते, कायेकू यार?
तंबाकू में इश्क़, पाउच में जश्न?
इस धोखे में पड़ते कायेकू यार?
वृहद्वानी कहे जो वो सुन ले यार,
ख़ुद को यूँ मिटाते कायेकू यार?
~वृहद
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