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Thursday, March 27, 2025

कुछ मंज़िलें थीं, जो सफ़र हो गए ।

 



कुछ मंज़िलें थीं, जो सफ़र हो गए,
वजूद-ए-मंज़र रहगुज़र हो गए।

कुछ फ़ासले थे, जो मिट गए,
जब इक नज़्म में मुकम्मल हो गए।

जो लफ़्ज़ अधूरे थे, ख़ामोशियों में,
तेरे एहसास में ग़ज़ल हो गए।

कभी धूप थी, जो सिरहाने रुकी,
तेरी छाँव की आहट में सहर हो गए।

कुछ अरमान थे, सिर्फ़ कागज़ पे लिखे,
तेरी नज़रों की तलब में बहर हो गए।

तेरी यादों में बने अल्फ़ाज़ सुख़न हो गए,
जो भूले से थे लफ़्ज़, वो रहबर हो गए।

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