इश्क़-ए-शिकस्त में ये ठौर ठहरी,
फ़ेहरिस्त-ए-आशिक़ी में हम नहीं।
शिफ़ा-ए-रंजिश क़ुर्बत ही सही,
रुसवाई की मौजों में, थे हम नहीं।
बग़ावत-ए-हुस्न में शहादत ही सही,
तेरे ज़िक्र-ओ-गुमान तक में हम नहीं।
तग़ाफ़ुल-ए-यार में हम रहगुज़र नहीं,
मगर तेरी राहों के ख़ार में हम नहीं।
'वृहद' अपनी रंजिश में इतना क्यूँ है,
जिसे चाहा था, अब वो ही हम नहीं।
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इश्क़-ए-शिकस्त में ये ठौर ठहरी,
फ़ेहरिस्त-ए-आशिक़ी में हम नहीं।
शिफ़ा-ए-रंजिश में क़ुर्बत ही सही,
रुसवाई की मौज में थे हम नहीं।
बग़ावत-ए-हुस्न में जान दी हमने,
तेरे ज़िक्र-ओ-गुमान में हम नहीं।
तग़ाफ़ुल-ए-यार में हम ना सही,
तेरी राह के ख़ार भी हम नहीं।
‘वृहद’ को रंजिश है, इल्ज़ाम क्यों हो,
जिसे चाहा था, अब वो ही हम नहीं।
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