poet shire

poetry blog.

Monday, June 23, 2025

थे अधूरे में पूरे,

 थे अधूरे में पूरे,
ख़्वाब भी, हक़ीक़त भी,
अरमान भी, परितोष भी,
उलझनों में बसर तो रही,
मगर... ज़िंदगी कहीं।

इक कहानी जी थी
हमने किसी ज़माने —
इक साथ की आरज़ू,
बेकरारी की रातें थीं।
तन्हाइयों में भी उनके
चंद यादों के गुलशन थे —
जो महकते थे...
हिज़्र की ख़िज़ाँ में भी।

उन उदास लम्हों की
अनकही गुहारों में,
प्रेम की बुझती पुकारों में,
टिमटिमाती रातों की
जुगनू-सी जलती रातों में —
एक प्रतीक्षा... जीवंत रही।

--------------------------------
ख़ुदा ने दुआओं में इक नूर बख़्शा,
रहगुज़र-ए-निगार में इक हूर बख़्शा।

उनकी दीद में तरन्नुम गा रहे हैं,
आजाद हो उड़ा परिंदा, सुदूर बख़्शा।

मन की कैद में उम्र की सज़ा काट दी,
उजास हमें उम्मीद का शुऊर बख़्शा।

नफ़स नाज़िल किया उन्हें हममें,
मोज़ज़ा ने जिंदा किया... शकूर बख़्शा।

वृहदाभार! आपकी सोहबत में,
नेमतें-ए-इश्क़ की दौलत भरपूर बख़्शा।

No comments:

Post a Comment

ads