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Monday, March 17, 2025

अदा का श्रृंगार।

 दो रूहों की पहचान बना बैठे हैं,
हर दिन को इतवार बना बैठे हैं।
जैसे मौसमों की हो साज़िश कोई,
इस प्रेम उमंग में वो
हर छन को त्योहार बना बैठे हैं।"

"उनकी राग-गाथा के हर भाव,
सब दर किनार हुए पड़े हैं।
अपने प्रेम-प्रसंग की कल्पना को,
नवीन अभिव्यक्ति की पहचान बना बैठे हैं।
शेर-ओ-शायरी अपनी क़लम की निब से,
जीवन के कोरे काग़ज़ को सजा बैठे हैं।"

"जो कह भी दिया इज़हार-ए-इश्क़ कभी,
तीर-ए-जिगर के हैं जज़्बात सभी।
प्रेम की भाषा को नई,
अदा का श्रृंगार बना बैठे हैं,
अपनी रचना का हमें,
आधार बना बैठे हैं।"

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