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Friday, March 14, 2025

इल्म न रहा

इतने टूटे हैं कि,
टूटने का इल्म न रहा

इतने बिखरे हैं कि,
सिमटने का इल्म न रहा

तुम्हें चाहते हैं इतना कि,
अब ख़ुद के होने का इल्म न रहा

ख़ुद में देखा है तुम्हें इतना कि,
आईनों में अक्स का इल्म न रहा

ख़ुदाई तुममें देखी है इतनी कि,
ख़ुदा के होने का इल्म न रहा

वस्ल की चाहतें इतनी हैं कि,
हौसलों में फ़ासलों का इल्म न रहा। 

Ghazal version:

 इतने टूटे हैं कि,
टूटने का भी इल्म न रहा।

इतने बिखरे हैं कि,
सिमटने का भी इल्म न रहा।

तुम्हें चाहा इस क़दर,
कि ख़ुद के होने का इल्म न रहा।

आईनों में ढूँढा तुम्हें इतना,
कि अपने अक्स का इल्म न रहा।

तेरे जल्वों में देखा रब को,
अब ख़ुदा के होने का इल्म न रहा।


‘वृहद’ वस्ल की आरज़ू में ऐसे जिए,
कि फ़ासलों का भी इल्म न रहा।




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