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Monday, March 17, 2025

प्रिय, तुम बिन क्यों लगे जैसे...

 प्रिय, तुम बिन क्यों लगे जैसे...

चला जाऊं बस अनजानी राहों पर,
जब तक थकें पांव, जब तक रोके न कोई,
न तपती धूप, न सरोवर का पानी,
न हरियाली की गोद, न अमराई की छाँह।
बस चलता जाऊं, तुम बिन कहीं...

हर दिशा बैरन, हर क्षण उदास,
हर्ष-उन्माद के संग खड़ा यह विरह,
सूरज की पहली किरण से, चाँद की अंतिम चांदनी तक,
जलता जाऊं, बुझता नहीं, तुम बिन कहीं...

हीय में दबी भावनाएँ जब उभरती हैं,
हर शब्द में बस तुम्हीं को गढ़ता हूँ,
इतिहास के पन्नों पर लिख दूँ मैं,
एक नाम हमारा,
और एक नाम वियोग के उस क्षण का भी।

यह कलम न रुके, ये पाँव न थमें,
बस एक यही तपस्या शेष रहे,
प्रेम के अधूरे स्वरूप को संवारने की,
और इस विरह की अग्नि में,
तुम बिन जलता चला जाऊं...

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