poet shire

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Monday, March 31, 2025

इक दिन जब तेरे साथ रहे।

 गुफ्तगू के दौर चले,

और साँसें थमने को थीं,
उस रोज़ जब हम मिलने को थे।

नज़रें टकराईं जब पहली बार,
अरमानों के कई फूल खिले,
उस इक दिन जब तेरे साथ रहे।

नज़रें नजरों में रहीं,
बंधन हाथों में रहे,
हुई मौसमों की साज़िश,
फुलकारियों में,
भीगा था बदन,
सर्द थीं राहें,
सांसों में चलीं
सरगोशियों की गर्म आहें,
नजरों में कैद हो गए वो लम्हे,
वो इक दिन जब तेरे साथ रहे।

Saturday, March 29, 2025

The Hollow Well

 Before you, I knelt to a shadowed shrine,

A worshipper lost in a dream divine.

With you, the ember turned to flame,

A passion untamed, a whispered name.


And after—only silence grew,

An empty well where echoes flew.

I pour my verses, line by line,

Each word a wish, each rhyme a sign.


O depths so deep, O sorrow wide,

Will longing ever fill your tide?

Or shall my whispers, soft and frail,

Fade like footsteps on a trail?


Someday, perhaps, the well will rise,

With echoes soft as midnight sighs.

Or maybe love, once fierce and bright,

Will seep into the endless night.

Friday, March 21, 2025

सोहबत-ए-सांझ

 
एक सुनहरी सांझ, दूब से ढका मैदान, हल्की हवा में झूमते पेड़, पंछियों की परछाइयाँ और प्रेमी युगल। लड़का अपनी प्रेमिका की गोद में सिर रखे, उसकी आँखों में खोया हुआ है, और वह उसे प्यार भरी नजरों से देख रही है। यह सीन तुम्हारी कविता के भावों को पूरी तरह जीवंत कर देता है।



तेरी ज़ुल्फों से हुई वो शाम,
और तेरी आँखों में डूबा था मैं।
तेरा गोद था सिरहाना,
एक अनोखे मंज़र में खोया था मैं।

बायरों की मस्ती थी,
या खिलती तेरी हस्ती थी,
खिल उठती फिज़ा सारी,
जब भी तू हंसती थी।

लब खामोश थे,
पांव तले थे दूब के गलीचे,
मंजर खुद बयां कर रहे थे ,
दास्तान-ए-सोहबत मुहब्बत के।

यूँ बयां की,
मंज़र ने सोहबतें दास्तान हमारी।
सुना है,
इन्हें गाते हैं बागों के फूल सारे खुशबुओं में,
और विहंग,
करते संध्या गायन,
जो सोहबत-ए-सांझ हमारी थी।

Monday, March 17, 2025

अदा का श्रृंगार।

 दो रूहों की पहचान बना बैठे हैं,
हर दिन को इतवार बना बैठे हैं।
जैसे मौसमों की हो साज़िश कोई,
इस प्रेम उमंग में वो
हर छन को त्योहार बना बैठे हैं।"

"उनकी राग-गाथा के हर भाव,
सब दर किनार हुए पड़े हैं।
अपने प्रेम-प्रसंग की कल्पना को,
नवीन अभिव्यक्ति की पहचान बना बैठे हैं।
शेर-ओ-शायरी अपनी क़लम की निब से,
जीवन के कोरे काग़ज़ को सजा बैठे हैं।"

"जो कह भी दिया इज़हार-ए-इश्क़ कभी,
तीर-ए-जिगर के हैं जज़्बात सभी।
प्रेम की भाषा को नई,
अदा का श्रृंगार बना बैठे हैं,
अपनी रचना का हमें,
आधार बना बैठे हैं।"

प्रिय, तुम बिन क्यों लगे जैसे...

 प्रिय, तुम बिन क्यों लगे जैसे...

चला जाऊं बस अनजानी राहों पर,
जब तक थकें पांव, जब तक रोके न कोई,
न तपती धूप, न सरोवर का पानी,
न हरियाली की गोद, न अमराई की छाँह।
बस चलता जाऊं, तुम बिन कहीं...

हर दिशा बैरन, हर क्षण उदास,
हर्ष-उन्माद के संग खड़ा यह विरह,
सूरज की पहली किरण से, चाँद की अंतिम चांदनी तक,
जलता जाऊं, बुझता नहीं, तुम बिन कहीं...

हीय में दबी भावनाएँ जब उभरती हैं,
हर शब्द में बस तुम्हीं को गढ़ता हूँ,
इतिहास के पन्नों पर लिख दूँ मैं,
एक नाम हमारा,
और एक नाम वियोग के उस क्षण का भी।

यह कलम न रुके, ये पाँव न थमें,
बस एक यही तपस्या शेष रहे,
प्रेम के अधूरे स्वरूप को संवारने की,
और इस विरह की अग्नि में,
तुम बिन जलता चला जाऊं...

तेरा खिलवाड़

 उनके खेल में दो दिल होते हैं,

एक उनका, एक मेरा।

नियम खेल के सारे उनके,
चित्त भी उनका, पट भी उनका।
जीत उनकी और हार बस मेरी,
खुशियाँ उनकी, बेबसी मेरी।

बचपना भी उनका,
परिपक्वता भी उन्हीं की।
हम तो बस बंदर से नाचते रहते हैं,
रात की दो नींद और अगले दिन
फिर एक नए खेल के लिए।

मगरिब के धूल भरे मैदानों में

 मगरिब के धूल भरे मैदानों में,
तुम मृगतृष्णा-सी दिखती थी
दिशाओं में तुम्हें तलाशते उस पथिक को।

जब मृगतृष्णा दर्पण-सी टूट जाती,
पथिक का दिल उससे कहता:
"तू दर्पण में नहीं है,
तू तो इस दिल में बसती है।

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