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Saturday, March 15, 2025

बचपन के भूले गीत: अश्कों का सराय

उनकी महफ़िलों में रंग जमते हैं,
उन यादों के मुसलसल
जो दिल के क़रीब हैं, मगर पास कभी नहीं आते।
जो रास्ते ख़्वाब बन गए, उन्हीं राहों की आस लगाते हैं,
क्योंकि हम राही, बेपनाह अश्कों का सराय बनाते हैं।

बचपन के भूले गीत: गीले अश्क ।

ये अश्क भी गीले पड़ गए हैं,
जो मोती तुमने ठुकरा दिए,
कुछ ख़ामोशियाँ बाक़ी हैं,
कुछ यादें अब भी बची हैं।

हर शाम कहती है कुछ यूँ—
ज़िंदगी एक शाम है, जिए जा रहे हैं,
ग़मों की एक जाम है, पिए जा रहे हैं।
ये जाम लफ़्ज़ों पे आए, तो बस आरज़ू है,
ये जाम नब्ज़ों में उतर जाए, तो बस ज़िंदगी है।

ज़ेहन से उठता धुआँ,
जिस तलब की तलाश में भटक रहा है,
जाने वो फिर से मिलेगी कैसे..

बचपन के भूले गीत:मुफ़लिसी

रूठ जाते हो तुम क्यों अमूमन यूं ही,
टूट के बिफ़र जाते हैं निशा के रंग भी।
अंदाज़ का जो ख़याल आता है,
तो आईने ये कह देते हैं — मुस्कुरा दो।

क्यों जीना यूं मुफ़लिसी में ज़िंदगी,
ये तो अदा है उनकी,
जिनसे सज गई है ज़िंदगी।

बचपन के भूले गीत: ये आधी-अधूरी सी ज़िंदगी।

ये आधी-अधूरी सी ज़िंदगी,
सुस्त चाल में चलने की मंशा से,
रुकी हुई सी थी,पर चलती सी प्रतीत होती,
रेंग-रेंग कर भी बढ़ने की ख्वाहिश में
'बढ़ती हुई' समझने का भ्रम पालकर,
आगे भी नहीं देख पाती।

बस चंद कदमों की आहट लिए थी,
हौसला-अफ़ज़ाई को, ताकि कोई मंज़िल,
जो श्रम पर आधारित परिभाषित है,
उस तक पहुँचने को प्रयत्नशील हुई तो थी।
पर निरंतर इस प्रयास को जारी रखने के लिए,
जो पदचाप सुनाई देते थे, वे धूमिल हो गए हैं
दसों दिशाओं में।

और बढ़ने को ललायित ये 'कदम',
हर दिशा के होकर रह गए हैं।

फिर जब नींद टूटी, तो पाया—
कि हम एक पग भी न चले थे,
और वह पदचाप की आवाज़,
हमारे कानों की एक गूंज भर थी।

बचपन के भूले गीत: एक चहकती चिड़िया ।

एक चहकती, चंचल चिड़िया थी,
एक महकती हुई सी फूलबगिया थी।
मिठास से भरी उसकी कुक-कुक से,
हर डाल, हर पत्ती, झूमने लगी थी।

निशा की बेला तब छुपने को आई थी,
नव में ऊषा की ताज़गी छाई थी।
वो फुदकती, चहकती चिड़िया,
उजालों का एक संदेशा लाई थी।



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