poet shire

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Saturday, March 22, 2025

लिखने जो बैठूं तुझे,

लिखने भी बैठूं तुझे, तो क्या लिखूं मैं,
लिख दूं अपने दर्दे-जिगर का हाल,
या लिखूं खय्याम से खयाल।

लिख दूं सुबू सी, तेरी आंखों की प्यालियां,
तेरी महफ़िल में बदनाम आशिकों की गलियां।
कौन-कौन से हुस्न का रखूं हिसाब,
तेरे जौहर हैं सारे बेहिसाब।

Friday, March 21, 2025

बिछड़े थे हम एक मोड़ पर,

 बिछड़े थे हम एक मोड़ पर,
कुछ हसीन यादें छोड़ कर।
जो राहें साथ चली थीं कभी,
रह गईं यादों के निशान छोड़ कर।

तेरा शऊर और तेरा रहम,
तेरी अदा, सब छोड़ कर,
चल दिया तू एक अजनबी सा,
मुझे तन्हा सा छोड़ कर।

काफ़िला-ए-कारवां की थी ये मांग,
तेरी याद चले, तेरा साथ छोड़ कर।
सफ़र की रस्में निभानी थीं यूँ,
दिल को तन्हा सा छोड़ कर।

सफ़र फ़कीरी में, बचा कुछ नहीं,
बस तेरी यादें छोड़ कर।
न कोई मंज़िल, न कोई सहारा,
बस तेरा एहसास छोड़ कर।

बहता हूँ मैं अविरल धारा-सा,
हर एक ठहराव का अरमान छोड़ कर।
मुक़द्दर की लहरों संग चलता रहा,
सारे अपने अरमान छोड़ कर।

Thursday, March 20, 2025

संजोग।

प्रकृति की गति, होती वृत्ति से,
एक तेरी थी, एक मेरी थी।
कैसे कह दूं मिलना संजोग़ था,
क्यों न कह दूं,
मिले हम अपनी गति से,
एक तेरी थी, एक मेरी थी।

लय की बयार बहती, प्र-वृत्ति से,
एक तेरी थी, एक मेरी थी।
बहना–बहकाना संजोग़ था कैसे,
क्यों न कह दूं,
मिले हम अपनी ही लय से,
एक तेरी थी, एक मेरी थी।

Monday, March 17, 2025

तुम बिन कैसे जिया मै ।

एहतियात-ए-इश्क़ के एक वादे पर तुम बिन,
जाने कैसे जिया हूँ मैं।
जुदाई की हर वेदना में तुमको ही याद किया,
और तुम-सा जिया हूँ मैं। 

मगरिब के धूल भरे मैदानों में

 मगरिब के धूल भरे मैदानों में,
तुम मृगतृष्णा-सी दिखती थी
दिशाओं में तुम्हें तलाशते उस पथिक को।

जब मृगतृष्णा दर्पण-सी टूट जाती,
पथिक का दिल उससे कहता:
"तू दर्पण में नहीं है,
तू तो इस दिल में बसती है।

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