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Wednesday, March 19, 2025

ग़ज़ल – उनके हुस्न के संग ग़ज़ल मुकम्मल हो चली

मतला:

मतला से मक़ता तक एक सिलसिला चला,
उनके हुस्न का हर बयाँ ग़ज़ल हो चला।

मिसरा-ए-उला और मिसरा-ए-सानी का जादू देखो:

ज़ुल्फ़ों की गिरह में उलझते रहे शेर,
लब ने जो छेड़ा, बयाँ ग़ज़ल हो चला।

रदीफ़-काफ़िया का हुस्न:

आँखों में साक़ी का अंदाज़ भी था,
हर जाम में इक समां ग़ज़ल हो चला।

बहर की नज़ाकत और हुस्न की शोख़ी:

रुख़्सार पे शोले, लबों पर गुलाब,
हर रंग में इक नशा ग़ज़ल हो चला।

तखय्युल का जादू:

ख़ुशबू में लिपटा था हर इक हर्फ़ जैसे,
लिखते ही वो दास्ताँ ग़ज़ल हो चला।

हुस्न-ए-मक़ता (तखल्लुस के साथ):

'वृहद' उनकी नज़र से जो उतरा क़लाम,
महफ़िल में फिर बेग़ुमाँ ग़ज़ल हो चला।

Version 2:

मतला:
मतला से मक़ता तक एक सिलसिला चला,
उनके हुस्न का हर बयाँ, ग़ज़ल हो चला।

लब थे उनके मिसरा-ए-सानी ओ उला,
हर इक सुख़न का बयाँ, ग़ज़ल हो चला।

नज़र मिली तो आफ़ताब जलवा बिखेर दे,
जो झुकी, तो वो चाँदनी, ग़ज़ल हो चला।

रुख़्सार पे फैली जो लाली सुब्ह-ए-चमन,
हर गुल का रंग-ए-बयाँ, ग़ज़ल हो चला।

लटें गेसुओं में उलझते रहे यूँ ही अश'आर,
बहती घटाओं का समाँ, ग़ज़ल हो चला।

बहर दर बहर बहे अश'आर इस क़दर,
बज़्म-ए-सुख़न का जहाँ, ग़ज़ल हो चला।

रदीफ़-क़ाफ़िया सँवारे रहे हर ग़ज़ल,
हर शेर का हर निशाँ, ग़ज़ल हो चला।

तख़य्युल ओ तसव्वुर, तासीर ने दी जो रंगत,
उनकी तस्वीर-ए-झलक, ग़ज़ल हो चला।

चलने का अंदाज़, ठहरने की थी अदा,
हर इक कदम पे एहतिराम, ग़ज़ल हो चला।

वो ठहरे जो इक पल, रुकी साँस बनके,
जो उठे, तो हर इक धड़कन, ग़ज़ल हो चला।

मक़ता:
‘वृहद’ उनकी नज़रों से गिरते ही यूँ,
महफ़िल में फिर बेग़ुमाँ, ग़ज़ल हो चला।

Version 3

मतला से मक़ता तक इक सिलसिला चला,
उनके हुस्न का हर निशाँ, ग़ज़ल हो चला।

लब उनके हैं मिसरा-ए-सानी-ओ-उला,
लबों के सुख़न का बयाँ, ग़ज़ल हो चला।

लटें गेसुओं में उलझती रहीं इस क़दर,
बहारों में रंग-ए-समा, ग़ज़ल हो चला।

ख़ुशबू में लिपटा था हर इक हर्फ़ जैसे,
हर क़िस्सा-ए-नग़मा, ग़ज़ल हो चला।

बहर दर बहर अश'आर बहे इस क़दर,
सुख़न का नया इक जहाँ, ग़ज़ल हो चला।

रदीफ़-ओ-क़ाफ़िए की शोख़ियाँ थीं जनाब,
रक्स में बलखाता समाँ, ग़ज़ल हो चला।

तख़य्युल, तसव्वुर, तासीर की थी जो रंगत,
उनकी तस्वीर-ए-निहाँ, ग़ज़ल हो चला।

आँखों में साक़ी के जलवे थे जैसे,
हर जाम में था इक समाँ, ग़ज़ल हो चला।

'वृहद' उनकी नज़रों से गिरते ही यूँ,
महफ़िल में फिर बेग़ुमाँ, ग़ज़ल हो चला।

हर इक शोख़ी-ए-हुस्न लिख न सके 'वृहद',
ग़ज़ल अधूरी भी, फिर भी ग़ज़ल हो चला।

Wednesday, February 26, 2025

बुझते अलाव की चिंगारी

एक आदमी सर्द बर्फीली रात में अलाव के पास बैठा है, हाथों में उस लड़की की तस्वीर थामे जिसे उसने कभी बेइंतहा चाहा। उसके चेहरे पर यादों की गर्मी और तन्हाई की ठंडक साफ झलकती है।"



 ठंड की ठिठुरन सी जिंदगी में,
बुझते अलाव की चिंगारी सी,
कुछ राहत है तुम्हारी यादों में।

बोलती हैं तस्वीर भी तुम्हारी अकसर
जो तुम कभी चुप सी हो जाती हो,
जाड़े की धूप भी न हो कभी तो
कांपते लफ्ज़ संभल जाते हैं इन्हें देख कर।

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