poet shire

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Saturday, March 22, 2025

हक़ीक़त के आईने

ऐब-ए-हुनर में जीने वाले,
इतराते बहुत हैं।

जहीन-ए-फ़ितरत में जीने वाले,
छुपाते बहुत हैं।

दस्तूर-ए-सच को अपनाने वाले,
निभाते बहुत हैं।

वर्शन 2

हुनर-ए-ऐब में जीने वाले,
इतराते बहुत हैं।

फ़ितरत-ए-जहीन में जीने वाले,
छुपाते बहुत हैं।

सच-ए-दस्तूर को अपनाने वाले,
निभाते बहुत हैं।

Friday, March 21, 2025

कभी-कभी,

तुकों में खेलता, उलझता रहता था मैं, बस,
यही सोचता, क्यों हैं ये लफ़्ज़ इतने दिलकश।

इन तुकों का क्या करूँ, कैसे ढालूँ एहसास,
लिखूँ तो क्यों बिखर जाए, चुप रहूँ तो कश्मकश।

लफ़्ज़ों में रखूँ आग, या पानी कर दूँ इन्हें,
अश्कों में भीग जाएँ, या शोला बनें बेबस।

काग़ज़ की ये सतह भी कुछ कहती है मुझसे,
लिखने को बेचैन हूँ, फिर भी हूँ ख़ामोश बस।

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