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Sunday, March 16, 2025

तेरी याद बेहिसाब आई।

 ज़ुल्म जितना बढ़ा, तेरी याद उतनी आई,
नाप-तौल कर, न कम, न ज्यादा उतनी ही आई। 
ज़ुल्म बढ़ता रहा, साज़िशें बेतरतीब बढ़ीं, 
मौन के इस दौर में तेरी याद बेहिसाब आई।

ज़ुल्म-ओ-सितम के दौर में दर्द फ़ुग़ाँ हो गया, 
फुग़ाँ-ए-शौक़ में मरहम तेरी याद हो आई।
 दीद के क़ाबिल न सही, दीद-ए-इश्तिहार सही,
 यादों से खाली दिल में, तेरी याद बेहिसाब आई।

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