ज़ुल्म जितना बढ़ा, तेरी याद उतनी आई,
नाप-तौल कर, न कम, न ज्यादा उतनी ही आई।
ज़ुल्म बढ़ता रहा, साज़िशें बेतरतीब बढ़ीं,
मौन के इस दौर में तेरी याद बेहिसाब आई।
नाप-तौल कर, न कम, न ज्यादा उतनी ही आई।
ज़ुल्म बढ़ता रहा, साज़िशें बेतरतीब बढ़ीं,
मौन के इस दौर में तेरी याद बेहिसाब आई।
ज़ुल्म-ओ-सितम के दौर में दर्द फ़ुग़ाँ हो गया,
फुग़ाँ-ए-शौक़ में मरहम तेरी याद हो आई।
दीद के क़ाबिल न सही, दीद-ए-इश्तिहार सही,
यादों से खाली दिल में, तेरी याद बेहिसाब आई।
No comments:
Post a Comment