poet shire

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Monday, March 31, 2025

वो जो बन गया था वजूद मेरा।

 (यह ग़ज़ल ध्यान, तन्हाई, और जुदाई के भावों से भरी हुई है)

वो जो बन गया था वजूद मेरा,
उसे अब और तलाशूँ किसमें?
चहुँ ओर नूर तेरे एहसास का,
नूर-ए-शिफ़ा अब उतारूँ किसमें?

तेरी सोहबत में, दुनिया से बेखबर मैं,
सुकून-ए-हयात बसाऊँ किसमें?
दिल जो महका था तेरे फ़िक्र-ओ-फ़न से,
अब उजड़े मकाँ को सजाऊँ किसमें?

तेरी नज़रों के वारे थे,
कि दिल भी हारा, जहाँ भी हारा।
अब उस तीर-ए-नज़र का असर,
इस वीरां दिल में बचाऊँ किसमें?

राहतें और सही, वस्ल की राहत के सिवा,
इन ख़ाली रातों के जुगनू जलाऊँ किसमें?

Tuesday, March 18, 2025

फ़रेब था।

सोहबत का शिकवा नादानी थी,
तसव्वुर में रहना फ़रेब था।
निगाहों की मंज़िल थी दरिया मगर,
किनारों का कहना फ़रेब था।

बज़्म-ए-रिंदाँ में शाक़ी भी रिंद,
खुमारों का रंग इक फ़रेब था।
सुबू और साग़र की हक़ीक़त कहाँ,
बहारों का गहना फ़रेब था।

जिन्हें हमने समझा था साक़ी यहाँ,
उनकी मुरव्वत भी इक फ़रेब था।
लबों की हँसी में छुपे थे शिकस्त,
मुस्कानों का गहना फ़रेब था।

एक अहद पर ज़िंदगानी बसर,
ज़िंदगानी का शुऊर फ़रेब था।
जो लफ़्ज़ों में सच था, हक़ीक़त में क्या,
हर इक मा'नी में बस फ़रेब था।

वृहद, तेरा हर इक फ़साना यहाँ,
हक़ीक़त का चेहरा फ़रेब था।

~ वृहद

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