तुम एक रोज़ सागर किनारे आए थे,
सागर किनारे की रेत पे पड़ी धूप-से
तुम भी चमकते हुए, खिले हुए थे।
तुम रेत से उजली, शुद्ध — और मैं
साहिलों सा था, अपनी मर्यादा में उलझा हुआ।
तुम्हें छू लेने के इरादे — कभी उठता, कभी गिरता —
मैं भी किनारे तक पहुँचता,
तुम्हारे कदमों को चूमता, फिर लौट आता।
मेरा उतावलापन कहीं जलजला न बन जाए,
इसलिए मैं अपनी मर्यादाओं की हद में रहा —
बस तुम्हें छूता और लौट आता।
वो मिलन क्षणभंगुर था,
और तुम चले गए।
ये इल्ज़ाम देकर मैं रेत पे लिखे
अपने ही नाम को मिटा गया।
पर ये तुमने देखा ही नहीं —
अपनी सीमाओं की मर्यादा में लिपटा हुआ मैं,
तुम्हें बस छू कर आ गया।
तुम फिर आना उस तट पर,
फिर मिलेंगे, उसी रेत पर।
मैं साहिल बन तुम्हें छू जाऊँगा,
शायद इस तरह — बस कुछ देर, कुछ पल —
तुम्हें छूकर फिर तुमसे दूर हो जाऊँगा।
तब तक, साहिलों की उतरती-चढ़ती लहरों पे सवार,
मैं हर रोज़, हर पल करूँगा —
तुम्हारा... बस तुम्हारा इंतज़ार।
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