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Wednesday, April 9, 2025

तारीख़ों के दरमियाँ... घर?

 

ग़ज़ल

तख़ल्लुस: वृहद
रदीफ़: "घर बसा लो"
क़ाफ़िया: रही है / कैद में / चलती है / मगर / गए
बह्र: मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन 


ज़िंदगी कोर्ट की तारीख़ों में साँसें ले रही है,
ज़ुल्मत-ए-ख़ल्क़ तो देखो, कहते हैं "घर बसा लो"।

घर की जमानत है तारीख़ों की कैद में,
बरकत-ए-जमाअत तो देखो, कहते हैं "घर बसा लो"।

दो तारीख़ों के दरमियाँ बस साँस चलती है,
ठौर-ठिकाना नहीं, और हुक्म है—"घर बसा लो"।

चिता पे ज़िंदगी सिसकती रही मगर,
तमाशबीन ये कह गए—अब तो "घर बसा लो"।

'वृहद'! हर इक दरख़्त में जलती हैं कुछ उँगलियाँ,
छाँव भी मांगी तो कहते हैं—"घर बसा लो"।

'वृहद'! अरमान सारे तारीख़ों में घुल गए,
अपनों का शोर है, कहते हैं—"घर बसा लो"।


— वृहद



Monday, March 31, 2025

तुमने पूछा है ख़याल दिल का।

तुमने पूछा है, ख़याल दिल का,
कह भी दूँ कैसे ये हाल-ए-दिल का।

सोचता हूँ अंदाज़, उस पहली बात का,
खुला जो राज़, हिज्र-ए-यार, विसाल दिल का।

सवाल है एक, उस पहली मुलाक़ात का,
जो सिलसिला न बना, बस मलाल दिल का।

गुमाँ था लौटोगे, लेने हाल-ए-दिल का,
रह गया ख़ाम-ख़याल, बेहाल दिल का।

जवाब क्या दूँ, अब तेरे सवाल का,
एहसास-ए-खामोश, बदहाल दिल का।

वर्ज़न-२ 

तुमने पूछा है, क्या ख़याल-ए-दिल का,
कह भी दूँ कैसे ये हाल-ए-दिल का।

सोचता हूँ मैं फिर वही एक लम्हा,
खुल गया था जो इक विसाल-ए-दिल का।

रह गया बस मलाल उस मुलाक़ात का,
जो बना ही नहीं कमाल-ए-दिल का।

गुमाँ था कि आओगे लेने ख़बर तुम,
रह गया बस ग़ुबार हाल-ए-दिल का।

क्या कहूँ अब मैं तेरे इन सवालों,
सिर्फ़ खामोश है मलाल-ए-दिल का।



Saturday, March 29, 2025

इश्क़-ए-शिकस्त

इश्क़-ए-शिकस्त में ये ठौर ठहरी,
फ़ेहरिस्त-ए-आशिक़ी में हम नहीं।

शिफ़ा-ए-रंजिश क़ुर्बत ही सही,
रुसवाई की मौजों में, थे हम नहीं।

बग़ावत-ए-हुस्न में शहादत ही सही,
तेरे ज़िक्र-ओ-गुमान तक में हम नहीं।

तग़ाफ़ुल-ए-यार में हम रहगुज़र नहीं,
मगर तेरी राहों के ख़ार में हम नहीं।

'वृहद' अपनी रंजिश में इतना क्यूँ है,
जिसे चाहा था, अब वो ही हम नहीं।

updated with meter correction:

इश्क़-ए-शिकस्त में ये ठौर ठहरी,
फ़ेहरिस्त-ए-आशिक़ी में हम नहीं।

शिफ़ा-ए-रंजिश में क़ुर्बत ही सही,
रुसवाई की मौज में थे हम नहीं।

बग़ावत-ए-हुस्न में जान दी हमने,
तेरे ज़िक्र-ओ-गुमान में हम नहीं।

तग़ाफ़ुल-ए-यार में हम ना सही,
तेरी राह के ख़ार भी हम नहीं।

‘वृहद’ को रंजिश है, इल्ज़ाम क्यों हो,
जिसे चाहा था, अब वो ही हम नहीं।


Thursday, March 27, 2025

कुछ मंज़िलें थीं, जो सफ़र हो गए ।

 



कुछ मंज़िलें थीं, जो सफ़र हो गए,
वजूद-ए-मंज़र रहगुज़र हो गए।

कुछ फ़ासले थे, जो मिट गए,
जब इक नज़्म में मुकम्मल हो गए।

जो लफ़्ज़ अधूरे थे, ख़ामोशियों में,
तेरे एहसास में ग़ज़ल हो गए।

कभी धूप थी, जो सिरहाने रुकी,
तेरी छाँव की आहट में सहर हो गए।

कुछ अरमान थे, सिर्फ़ कागज़ पे लिखे,
तेरी नज़रों की तलब में बहर हो गए।

तेरी यादों में बने अल्फ़ाज़ सुख़न हो गए,
जो भूले से थे लफ़्ज़, वो रहबर हो गए।

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