poet shire

poetry blog.

Sunday, May 25, 2025

विदाई के गीत।

तुम्हें हक़ है, तुम आगे बढ़ जाओ प्रिये,
मैंने तो ज़माने की बदहाली ओढ़ रखी है।
तुम कहाँ इस फटे कम्बल में सुख पाओगी,
तुम्हारी आकांक्षाएँ — नरम तकियों सी मुलायम हैं।
हमने तो एक आख़िरी सपना देखने का
हक़ भी खो दिया।

जब तक रहीं, राहत सी रहीं तुम,
नाउम्मीदी में आशा बनकर खिलीं तुम।
संघर्ष की हर मोड़ पर मुस्कुराती दिखीं तुम,
इन मुस्कानों में दुख छुपाकर —
एक शम्मा, उम्मीद की जला गई थीं तुम।

है तुम्हें अलविदा, प्रिये!
फिर किसी आपदा में मिलेंगे,
कभी खैरियत पूछने भर ही सही—
थोड़ी-सी गुफ़्तगू तो हो ही जाएगी।

No comments:

Post a Comment

ads