कभी मोहब्बत की तासीर वक्त से बड़ी होती है।
कभी कोई जुदाई, ख़ुदा की तरह—नज़र नहीं आती, पर हर जगह मौजूद रहती है।
यह ग़ज़ल, एक ऐसे ही अक्स की परछाईं है—जो लहू में सिला रहता है, ज़ख़्म में हरा-भरा।
कभी कोई जुदाई, ख़ुदा की तरह—नज़र नहीं आती, पर हर जगह मौजूद रहती है।
यह ग़ज़ल, एक ऐसे ही अक्स की परछाईं है—जो लहू में सिला रहता है, ज़ख़्म में हरा-भरा।
ग़ज़ल
ज़ख़्म भी हरा-भरा सा रहता है,
लहू, पैरहन में सिला सा रहता है।
लहू, पैरहन में सिला सा रहता है।
एक तासीर है, मुद्दतों तलक वीरानियों में—
बिछड़ा यार, ख़ुदा-ख़ुदा सा रहता है।
तन्हाई की सर्द रात में जो बुझे न कभी,
वो इक चिराग़, दिल में जला सा रहता है।
हर इक ग़ुर्बत में उसकी आहट मिलती है,
वो जो गया भी, सदा-सदा सा रहता है।
‘वृहद’ अब उसकी बात भी कम होती है,
पर नाम उसका, दुआ-दुआ सा रहता है।
~ वृहद
शब्दार्थ:
पैरहन: वस्त्र
सिला: सिलाई गया, टांका गया
तासीर: असर, प्रभाव
वीरानी: सूनीपन, खालीपन
ग़ुर्बत: दूरी, बेगानगी
सदा: हमेशा
दुआ-दुआ: मानो कोई पाक चीज़, जो लबों पे आ जाए
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