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Wednesday, May 21, 2025

इंकार दे दो – एक ग़ज़ल इश्क़ के ज़हर में डूबी

भूमिका:
कभी-कभी मोहब्बत, मुश्क की तरह नहीं महकती… बस चुभती है — ज़ख़्म बनकर।
ये ग़ज़ल, उस दीवाने की पुकार है जिसने प्रेम से जवाब नहीं, मगर इंकार माँगा।


ग़ज़ल 

और दो, ज़ख्म दो चार दे दो,
इश्क़-मुश्क में इनकार दे दो।

देहरी पे तेरे रोया था एक दीवाना,
फिर कोई तिकड़म उपहार दे दो।

सादगी एक अदा तो थी न कभी,
अब तो छल को भी श्रृंगार दे दो।

ज़हर भी अब तअल्लुक़ सा लगता है,
चलो मुझको फिर उस पार दे दो।

क़ैद में हूँ तेरी आँखों की मुद्दत से,
अब तो इस दिल को दरकार दे दो।

मैं भी चाहूँ सुलगती सी बंदिशें,
तुम ग़ज़ल को नया किरदार दे दो।

वो जो तस्वीर-ए-हसरत थी कल तलक,
उसे अब ख्वाब या इंकार दे दो।

'वृहद' बस यही इल्तिजा करे तुझसे,

या तो ठुकरा दो, या इकरार दे दो।

लेखक:
— 'वृहद'
(तख़ल्लुस में चुप बैठा एक ज़ख़्मी फ़लसफ़ा)
शब्दार्थ (Collapsible):
मुश्क – ख़ुशबू
तिकड़म – चालाकी, बहाना
श्रृंगार – सौंदर्य, सजावट
तअल्लुक़ – संबंध
दरकार – ज़रूरत
बंदिशें – ग़ज़ल की तकनीक / सीमाएं
तस्वीर-ए-हसरत – इच्छाओं की छवि
ख्वाब – सपना
इल्तिजा – विनती

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