सच का द्वार खुला रखा है, तुम्हारे इंतज़ार में।
बहक गए हो बहुत, झूठी इक तलाश में,
अहद-ए-वफ़ा-ए-ईमाँ है तुम्हारे इंतज़ार में।
मेरे दर पे आना... एक साहिर भी है इंतज़ार में।
This blog is dedicated to poetry born from my tragedies and experiences—events that have allowed my emotions to flow into the stream of verse.
जो तुमने हमें, इशारा कर दिया होता
तो हमने तुम्हें जाने न दिया होता।
रात्रि की आख़िरी पहर थी,
सुनसान सड़कों पर तुम अकेली थी,
एक पोस्ट लैंप की टिमटिमाती रोशनी के नीचे
एक ओर तुम खड़ी थी, एक ओर मैं।
तुम्हें दाहिने जाना था, मुझे बाएँ जाना था,
मगर क़दमों की झिझक ने हमें रोक रखा था।
हवा में घुली थी कुछ अनकही बातें,
मौन में उलझी थीं टूटी मुलाक़ातें।
चाहता था कि एक बार तुम पलटकर देखो,
कि उजालों से नहीं, अंधेरों से रिश्ता गाढ़ा होता।
अगर आँखों ने तुमसे सवाल कर लिया होता,
तो शायद होंठों को कुछ कहने का बहाना मिल जाता।
तुम चली गई, मैं वहीं रह गया,
वो लम्हा वहीँ कहीं ठहर गया।
अगर दस्तक वक़्त पर दे दी होती,
तो शायद अंज़ाम कुछ और हुआ होता।
बातें होती थीं रात-दिन,
रैन की, चैन की... कुछ सिसकती आहें थीं,
गरम चाय की नरम साँसों में,
प्यार उन पलों में पलता रहा,
गुफ़्तगू का सिलसिला यूँ ही बहता रहा।
फिर एक रोज़—
हमारी बातें जुगलबंदी बन गईं,
जैसे एक कविता दो धड़कनों में चलती हो।
तेरी ख़्वाहिश मुझमें धड़कने लगी,
मेरी तन्हा रातों में तू जागने लगी।
उस अंतर्जाल के झरोखों के पट पर,
हम कुछ यूँ मिलते थे—
जैसे एक सफ़र के दो राही,
चाँद और छाया बन
एक-दूजे की परछाइयाँ चलते थे।
गुफ़्तगू का वो लम्हा—
सबसे अनमोल था।
एक मेरी ही ख़ता थी,
जो मुझसे छूट गया था।
वो अहद-ए-वफ़ा का पल...
शायद एक ख़्वाब सा था।
(जहाँ दिल और लफ़्ज़ दोनों तुम्हारे हैं…)
…और अगर कभी उस सफ़हे पर
कोई नया लफ़्ज़ लिखो—
तो उसमें मेरा नाम मत लेना।
बस एक बेमानी ख़ामोशी रख देना,
जिसमें मेरी पूरी मोहब्बत दफ़न है।
— वृहद
“कुछ एहसास सिर्फ़ सिसकियों में शायर होते हैं।”
(एक रूबाईनुमा कविता)
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- वृहद
(दिनांक: 6 अप्रैल 2025)
स्थान: यादों की दीवार के सामने बैठा मन
लेखन: वृहद
बिखरे कुंतल, उन्मुक्त है नारी,
पुलकित अधर, मुस्कान आभारी।
उन्नत उरोज, श्वेत तन रज धारी,
लसद-कटि, संग लगे वो न्यारी।
नैनन से जो देखे नारी,
हिए में उतरे चले कटारी।
बालखावत अदा सुकुमारी,
चंचल गति, मृदु छवि प्यारी।
नाज़ुक कलियाँ, कंगना भारी,
अंग-अंग में शोखी सारी।
धीमे बोलत फूल बिसारी,
चलत चपला, लहर पखारी।
मंद हँसी, चंद्रिका छा री,
नूपुर प्रीत की राग सुना री।
पथ-पथ चंपा चून बिछा री,
पग पैजन संग, फाग लुटा री।
काव्य टिप्पणी:
यह कविता नारी सौंदर्य के उस पक्ष को चित्रित करती है, जहाँ शृंगार आत्मा की भाषा बन जाता है।
वह केवल एक दृश्य नहीं, अपितु अनुभूति है — जीवन, राग, और रस का आलंबन।
यही नारी, हमारे आगामी महाकाव्य की प्रेरणा भी है।
तख़ल्लुस: वृहद
रदीफ़: "घर बसा लो"
क़ाफ़िया: रही है / कैद में / चलती है / मगर / गए
बह्र: मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
ज़िंदगी कोर्ट की तारीख़ों में साँसें ले रही है,
ज़ुल्मत-ए-ख़ल्क़ तो देखो, कहते हैं "घर बसा लो"।घर की जमानत है तारीख़ों की कैद में,
बरकत-ए-जमाअत तो देखो, कहते हैं "घर बसा लो"।दो तारीख़ों के दरमियाँ बस साँस चलती है,
ठौर-ठिकाना नहीं, और हुक्म है—"घर बसा लो"।चिता पे ज़िंदगी सिसकती रही मगर,
तमाशबीन ये कह गए—अब तो "घर बसा लो"।'वृहद'! हर इक दरख़्त में जलती हैं कुछ उँगलियाँ,
छाँव भी मांगी तो कहते हैं—"घर बसा लो"।'वृहद'! अरमान सारे तारीख़ों में घुल गए,
अपनों का शोर है, कहते हैं—"घर बसा लो"।
— वृहद
Today, you are someone else,
And I — a stranger to the one I used to be.
But the image of you, the one you carved in me,
Lingers — soft, stubborn, and unyielding.
A journey of just a few steps,
Yet it stretched across my heart like an endless road.
And now this memory overshadows me,
Gives me something — and takes away everything.
But tell me this — was it ever truly love,
This ache, this longing that remains?
Do I miss you, or the image I wove —
Of who you were, and who I hoped you’d be?
तुमने पूछा है, ख़याल दिल का,
कह भी दूँ कैसे ये हाल-ए-दिल का।
सोचता हूँ अंदाज़, उस पहली बात का,
खुला जो राज़, हिज्र-ए-यार, विसाल दिल का।
सवाल है एक, उस पहली मुलाक़ात का,
जो सिलसिला न बना, बस मलाल दिल का।
गुमाँ था लौटोगे, लेने हाल-ए-दिल का,
रह गया ख़ाम-ख़याल, बेहाल दिल का।
जवाब क्या दूँ, अब तेरे सवाल का,
एहसास-ए-खामोश, बदहाल दिल का।
वर्ज़न-२
तुमने पूछा है, क्या ख़याल-ए-दिल का,
कह भी दूँ कैसे ये हाल-ए-दिल का।
सोचता हूँ मैं फिर वही एक लम्हा,
खुल गया था जो इक विसाल-ए-दिल का।
रह गया बस मलाल उस मुलाक़ात का,
जो बना ही नहीं कमाल-ए-दिल का।
गुमाँ था कि आओगे लेने ख़बर तुम,
रह गया बस ग़ुबार हाल-ए-दिल का।
क्या कहूँ अब मैं तेरे इन सवालों,
सिर्फ़ खामोश है मलाल-ए-दिल का।
नज़रें टकराईं जब पहली बार,
अरमानों के कई फूल खिले,
उस इक दिन जब तेरे साथ रहे।
नज़रें नजरों में रहीं,
बंधन हाथों में रहे,
हुई मौसमों की साज़िश,
फुलकारियों में,
भीगा था बदन,
सर्द थीं राहें,
सांसों में चलीं
सरगोशियों की गर्म आहें,
नजरों में कैद हो गए वो लम्हे,
वो इक दिन जब तेरे साथ रहे।
(यह ग़ज़ल ध्यान, तन्हाई, और जुदाई के भावों से भरी हुई है)
वो जो बन गया था वजूद मेरा,
उसे अब और तलाशूँ किसमें?
चहुँ ओर नूर तेरे एहसास का,
नूर-ए-शिफ़ा अब उतारूँ किसमें?
तेरी सोहबत में, दुनिया से बेखबर मैं,
सुकून-ए-हयात बसाऊँ किसमें?
दिल जो महका था तेरे फ़िक्र-ओ-फ़न से,
अब उजड़े मकाँ को सजाऊँ किसमें?
तेरी नज़रों के वारे थे,
कि दिल भी हारा, जहाँ भी हारा।
अब उस तीर-ए-नज़र का असर,
इस वीरां दिल में बचाऊँ किसमें?
राहतें और सही, वस्ल की राहत के सिवा,
इन ख़ाली रातों के जुगनू जलाऊँ किसमें?
इश्क़-ए-शिकस्त में ये ठौर ठहरी,
फ़ेहरिस्त-ए-आशिक़ी में हम नहीं।
शिफ़ा-ए-रंजिश में क़ुर्बत ही सही,
रुसवाई की मौज में थे हम नहीं।
बग़ावत-ए-हुस्न में जान दी हमने,
तेरे ज़िक्र-ओ-गुमान में हम नहीं।
तग़ाफ़ुल-ए-यार में हम ना सही,
तेरी राह के ख़ार भी हम नहीं।
‘वृहद’ को रंजिश है, इल्ज़ाम क्यों हो,
जिसे चाहा था, अब वो ही हम नहीं।
Before you, I knelt to a shadowed shrine,
A worshipper lost in a dream divine.
With you, the ember turned to flame,
A passion untamed, a whispered name.
And after—only silence grew,
An empty well where echoes flew.
I pour my verses, line by line,
Each word a wish, each rhyme a sign.
O depths so deep, O sorrow wide,
Will longing ever fill your tide?
Or shall my whispers, soft and frail,
Fade like footsteps on a trail?
Someday, perhaps, the well will rise,
With echoes soft as midnight sighs.
Or maybe love, once fierce and bright,
Will seep into the endless night.
सद-ए-ख़ामोशी में मौन उतरा,
वो शख़्स न था—ये कौन उतरा?
अनहद नाद का ज्वार उठा,
उस शोर को सुनता ये कौन उतरा?
लहरें थमीं चित्त-सरवर में,
दरिया-ए-सुकून में फिर कौन उतरा?
वृहद तिश्नगी जब तृप्त हुई,
अमृत सा बरसा—ये कौन उतरा?
टूटी तृष्णा, मिटे भ्रम सारे, वृहद मिटा,
चैतन्य में जागा—कौन उतरा?
सद-ए-ख़ामोशी में मौन उतरा,
वो शख़्स न था—ये कौन उतरा?
अनहद नाद उठा जब दिल में,
उस शोर को सुनता कौन उतरा?
लहरें थमीं जब चित्त-मन सरवर में,
दरिया-ए-सुकूँ में डूबा कौन उतरा?
टूटी तृष्णा, मिटे भ्रम सारे,
वृहद मिटा—पर कौन उतरा?
सदियों से जो खोज रहा था,
आख़िर में मुझमें कौन उतरा?
जागी नज़रों में रौशनी सी,
इस दिल के भीतर कौन उतरा?
ख़ुद को भी पहचाना जब मैंने,
आईना बोला—"कौन उतरा?"
लिख दूं सुबू सी, तेरी आंखों की प्यालियां,
तेरी महफ़िल में बदनाम आशिकों की गलियां।
कौन-कौन से हुस्न का रखूं हिसाब,
तेरे जौहर हैं सारे बेहिसाब।
आग सी जल रही है रगों में, कतरा-कतरा,
ख़ून कहता है बढ़, हौसलों में, कतरा-कतरा।
लोहा उठता नहीं यूँ ही बाज़ू से, देखो,
दर्द बहता है सीने के ज़ख़्मों में, कतरा-कतरा।
वज़्न बढ़ता गया, हड्डियाँ चीख़ उठीं,
फिर भी ढलता रहा मैं लहू में, कतरा-कतरा।
आईनों में दिखी अब वो सख़्त इक शख़्सियत,
जिसने जोड़ा बदन अपने खंडों में, कतरा-कतरा।
मंज़िलें क्या हैं? बस और मेहनत करो,
रोज़ पिघला हूँ लोहे की भट्टी में, कतरा-कतरा।
मक़ता:
वृहद अब न रुकेगा किसी मोड़ पर,
ख़ुद को गढ़ता रहेगा क़सम में, कतरा-कतरा।
वेसरिऑन 3
जिस्म टूटे है आग़ोश-ए-ग़म में, कतरा-कतरा,
रूह जलती रही शौक़-ए-दम में, कतरा-कतरा।
ख़ून में जोश है, आग़ है साँस में,
यूँ ही ढलते नहीं तीर-ओ-ख़म में, कतरा-कतरा।
दर्द हँसने लगा आज़माइश पे जब,
ख़ुद ही जलने लगा अपनी चम में, कतरा-कतरा।
अब जो आईने में अक्स सख़्त है,
दर्द घुलता रहा इस क़दम में, कतरा-कतरा।
मंज़िलें ही सफ़र बन गई हैं, मगर,
दर्द मिलता रहा हर क़सम में, कतरा-कतरा।
मक़ता:
वृहद अब न झुकेगा किसी आँधियों में,
आब दी है इसे अब क़सम में, कतरा-कतरा।
बायरों की मस्ती थी,
या खिलती तेरी हस्ती थी,
खिल उठती फिज़ा सारी,
जब भी तू हंसती थी।
लब खामोश थे,
पांव तले थे दूब के गलीचे,
मंजर खुद बयां कर रहे थे ,
दास्तान-ए-सोहबत मुहब्बत के।
यूँ बयां की,
मंज़र ने सोहबतें दास्तान हमारी।
सुना है,
इन्हें गाते हैं बागों के फूल सारे खुशबुओं में,
और विहंग,
करते संध्या गायन,
जो सोहबत-ए-सांझ हमारी थी।