झरोखों से
हम एक-दूजे से मिला करते थे,
गुफ़्तगू का आलम चलता था।
बातें होती थीं रात-दिन,
रैन की, चैन की... कुछ सिसकती आहें थीं,
गरम चाय की नरम साँसों में,
प्यार उन पलों में पलता रहा,
गुफ़्तगू का सिलसिला यूँ ही बहता रहा।
फिर एक रोज़—
हमारी बातें जुगलबंदी बन गईं,
जैसे एक कविता दो धड़कनों में चलती हो।
तेरी ख़्वाहिश मुझमें धड़कने लगी,
मेरी तन्हा रातों में तू जागने लगी।
उस अंतर्जाल के झरोखों के पट पर,
हम कुछ यूँ मिलते थे—
जैसे एक सफ़र के दो राही,
चाँद और छाया बन
एक-दूजे की परछाइयाँ चलते थे।
गुफ़्तगू का वो लम्हा—
सबसे अनमोल था।
एक मेरी ही ख़ता थी,
जो मुझसे छूट गया था।
वो अहद-ए-वफ़ा का पल...
शायद एक ख़्वाब सा था।
जब हम-तुम दो भाव, एक कविता बने—
तू आसमान, मैं ज़मीन,
क्षितिज में मिले थे कैसे ?
वो नरम सहर की रोशनी,
उदित-मुदित हुई थी कैसे ?
अंतिम पंक्तियाँ
(जहाँ दिल और लफ़्ज़ दोनों तुम्हारे हैं…)
तुम्हारे पास था रह गया,
जो मैं भूल गया...
तुमने संजो लिया।
तुम फिर कोई ख़त लिखना प्रिये,
जिक्र हो जिनमे, वो प्रेम के पहले लम्हे,
मैं लौट आऊँगा,
तुमसे मिलने उसी मोड़ पर,
जहाँ एक अनकही दास्तान
अब भी अधूरी पड़ी है...
तुम्हारे पास।
…और अगर कभी उस सफ़हे पर
कोई नया लफ़्ज़ लिखो—
तो उसमें मेरा नाम मत लेना।
बस एक बेमानी ख़ामोशी रख देना,
जिसमें मेरी पूरी मोहब्बत दफ़न है।
— वृहद
“कुछ एहसास सिर्फ़ सिसकियों में शायर होते हैं।”
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