जो तुमने हमें, इशारा कर दिया होता
तो हमने तुम्हें जाने न दिया होता।
रात्रि की आख़िरी पहर थी,
सुनसान सड़कों पर तुम अकेली थी,
एक पोस्ट लैंप की टिमटिमाती रोशनी के नीचे
एक ओर तुम खड़ी थी, एक ओर मैं।
तुम्हें दाहिने जाना था, मुझे बाएँ जाना था,
मगर क़दमों की झिझक ने हमें रोक रखा था।
हवा में घुली थी कुछ अनकही बातें,
मौन में उलझी थीं टूटी मुलाक़ातें।
चाहता था कि एक बार तुम पलटकर देखो,
कि उजालों से नहीं, अंधेरों से रिश्ता गाढ़ा होता।
अगर आँखों ने तुमसे सवाल कर लिया होता,
तो शायद होंठों को कुछ कहने का बहाना मिल जाता।
तुम चली गई, मैं वहीं रह गया,
वो लम्हा वहीँ कहीं ठहर गया।
अगर दस्तक वक़्त पर दे दी होती,
तो शायद अंज़ाम कुछ और हुआ होता।
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