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Wednesday, April 9, 2025

तारीख़ों के दरमियाँ... घर?

 

ग़ज़ल

तख़ल्लुस: वृहद
रदीफ़: "घर बसा लो"
क़ाफ़िया: रही है / कैद में / चलती है / मगर / गए
बह्र: मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन 


ज़िंदगी कोर्ट की तारीख़ों में साँसें ले रही है,
ज़ुल्मत-ए-ख़ल्क़ तो देखो, कहते हैं "घर बसा लो"।

घर की जमानत है तारीख़ों की कैद में,
बरकत-ए-जमाअत तो देखो, कहते हैं "घर बसा लो"।

दो तारीख़ों के दरमियाँ बस साँस चलती है,
ठौर-ठिकाना नहीं, और हुक्म है—"घर बसा लो"।

चिता पे ज़िंदगी सिसकती रही मगर,
तमाशबीन ये कह गए—अब तो "घर बसा लो"।

'वृहद'! हर इक दरख़्त में जलती हैं कुछ उँगलियाँ,
छाँव भी मांगी तो कहते हैं—"घर बसा लो"।

'वृहद'! अरमान सारे तारीख़ों में घुल गए,
अपनों का शोर है, कहते हैं—"घर बसा लो"।


— वृहद



Monday, February 24, 2025

एक सुबह ऐसी भी हो

 



Ek nazuk aur mehka hua manzar jahan muskaan ki halki silvaton mein mohabbat apni dastaan likh rahi hai. Jhuki aankhon ki sharmindagi aur rukhshar par khilti khushiyon ki tasveer.


मखमली रुख़सार की चादर पर 
अधरों के किनारे से हौले-हौले
एक ख़ुशी सी चढ़ती,
और रुख़सार पर खिल जाती थीं
ख़ुशियों की सिलवटें।

उन सिलवटों से बनीं हल्की हिलकोरें,
सुरमई और कुछ खोए-से लगते थे,
और आँखें… हाय, वो झुकी हुई आँखें,
शर्मीली अठखेलियाँ लेती थीं।

नज़ाकत बन के एक सुबह,
कभी यूँ हम पर गुज़री थी,
उन दिनों जब हमारी बातें हुआ करती थीं,
सुबह कितनी हसीन हुआ करती थी।

दिली चाहत भर रह गई —
कि फिर एक सुबह ऐसी भी हो…

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