जिस्म टूटता है लौह के आशियाँ में कतरा-कतरा,
होती ही रूबरू तन की ख़्वाहिशें कतरा-कतरा।
लहू में तपिश, सांस में शोले लिए फिरता हूँ,
यूँ ही नहीं बनते हैं बाजू फौलादी कतरा-कतरा।
दर्द भी हंस पड़ा इस कड़ी आज़माइश पर,
जब मैं पिघलने लगा अपनी ही आग में कतरा-कतरा।
आईनों में दिखता है अब सख़्त इक बदन,
जाने कितने दर्दों का हासिल है कतरा-कतरा।
मंज़िल ही सफ़र है जिस्म के दर्द का,
जिस्म माँगता है इक सज़ा कतरा-कतरा।
मक़ता:
वृहद ख़ुद को गढ़े लोहे की इस भट्टी में,
अब न झुकेगा किसी आँधियों में कतरा-कतरा।
वर्ज़न 2
आग सी जल रही है रगों में, कतरा-कतरा,
ख़ून कहता है बढ़, हौसलों में, कतरा-कतरा।
लोहा उठता नहीं यूँ ही बाज़ू से, देखो,
दर्द बहता है सीने के ज़ख़्मों में, कतरा-कतरा।
वज़्न बढ़ता गया, हड्डियाँ चीख़ उठीं,
फिर भी ढलता रहा मैं लहू में, कतरा-कतरा।
आईनों में दिखी अब वो सख़्त इक शख़्सियत,
जिसने जोड़ा बदन अपने खंडों में, कतरा-कतरा।
मंज़िलें क्या हैं? बस और मेहनत करो,
रोज़ पिघला हूँ लोहे की भट्टी में, कतरा-कतरा।
मक़ता:
वृहद अब न रुकेगा किसी मोड़ पर,
ख़ुद को गढ़ता रहेगा क़सम में, कतरा-कतरा।
वेसरिऑन 3
जिस्म टूटे है आग़ोश-ए-ग़म में, कतरा-कतरा,
रूह जलती रही शौक़-ए-दम में, कतरा-कतरा।
ख़ून में जोश है, आग़ है साँस में,
यूँ ही ढलते नहीं तीर-ओ-ख़म में, कतरा-कतरा।
दर्द हँसने लगा आज़माइश पे जब,
ख़ुद ही जलने लगा अपनी चम में, कतरा-कतरा।
अब जो आईने में अक्स सख़्त है,
दर्द घुलता रहा इस क़दम में, कतरा-कतरा।
मंज़िलें ही सफ़र बन गई हैं, मगर,
दर्द मिलता रहा हर क़सम में, कतरा-कतरा।
मक़ता:
वृहद अब न झुकेगा किसी आँधियों में,
आब दी है इसे अब क़सम में, कतरा-कतरा।