poet shire

poetry blog.

Saturday, March 15, 2025

बचपन के भूले गीत: ये आधी-अधूरी सी ज़िंदगी।

ये आधी-अधूरी सी ज़िंदगी,
सुस्त चाल में चलने की मंशा से,
रुकी हुई सी थी,पर चलती सी प्रतीत होती,
रेंग-रेंग कर भी बढ़ने की ख्वाहिश में
'बढ़ती हुई' समझने का भ्रम पालकर,
आगे भी नहीं देख पाती।

बस चंद कदमों की आहट लिए थी,
हौसला-अफ़ज़ाई को, ताकि कोई मंज़िल,
जो श्रम पर आधारित परिभाषित है,
उस तक पहुँचने को प्रयत्नशील हुई तो थी।
पर निरंतर इस प्रयास को जारी रखने के लिए,
जो पदचाप सुनाई देते थे, वे धूमिल हो गए हैं
दसों दिशाओं में।

और बढ़ने को ललायित ये 'कदम',
हर दिशा के होकर रह गए हैं।

फिर जब नींद टूटी, तो पाया—
कि हम एक पग भी न चले थे,
और वह पदचाप की आवाज़,
हमारे कानों की एक गूंज भर थी।

बचपन के भूले गीत: एक चहकती चिड़िया ।

एक चहकती, चंचल चिड़िया थी,
एक महकती हुई सी फूलबगिया थी।
मिठास से भरी उसकी कुक-कुक से,
हर डाल, हर पत्ती, झूमने लगी थी।

निशा की बेला तब छुपने को आई थी,
नव में ऊषा की ताज़गी छाई थी।
वो फुदकती, चहकती चिड़िया,
उजालों का एक संदेशा लाई थी।



lost and forgotten juveniles poems: Mirror in my room

Bizarre! I stood past a mirror in my room,
when, after long, there I stood—
maybe a decade or two.
The mirror smiled and said:
'Who are you?
You are not the person I once knew...

lost and forgotten juveniles poems: And Till we find our "she"

life pursuits some fairy tales, 
illusions we see, 
illusions we hear, 
deluded we are left, 
deluded we are spared. 

hallucionist junkie we live as, 
a mockery monkey 
dancing on some jamura beats 
and then a banana is all 
for what the monkey lives. 

Friday, March 14, 2025

रंगों में बहती माया




 जीवन-जगत—माया,
बहती रंगों की नदिया बन के,

चेतन–जीवो-रूपण,
बिखरती रंगों की दुनिया बन के

इल्म न रहा





इतने टूटे हैं कि,
टूटने का इल्म न रहा

इतने बिखरे हैं कि,
सिमटने का इल्म न रहा

तुम्हें चाहते हैं इतना कि,
अब ख़ुद के होने का इल्म न रहा

ख़ुद में देखा है तुम्हें इतना कि,
आईनों में अक्स का इल्म न रहा

ख़ुदाई तुममें देखी है इतनी कि,
ख़ुदा के होने का इल्म न रहा

वस्ल की चाहतें इतनी हैं कि,
हौसलों में फ़ासलों का इल्म न रहा। 

Ghazal version:

 इतने टूटे हैं कि,
टूटने का भी इल्म न रहा।

इतने बिखरे हैं कि,
सिमटने का भी इल्म न रहा।

तुम्हें चाहा इस क़दर,
कि ख़ुद के होने का इल्म न रहा।

आईनों में ढूँढा तुम्हें इतना,
कि अपने अक्स का इल्म न रहा।

तेरे जल्वों में देखा रब को,
अब ख़ुदा के होने का इल्म न रहा।

‘वृहद’ वस्ल की आरज़ू में ऐसे जिए,
कि फ़ासलों का भी इल्म न रहा।




ख़ुमारी बने बादल

 एहसास-ए-लफ़्ज़! :

ख़ुमारी बने बादल


ये मेरे निर्मोही क़दम, क्यों तुझ तक ले जाएँ ना,
ये ख़ुमारी बने बादल, क्यों तुझको फिर बरसाएँ ना।

ये वक़्त की साक़लें, ये बेबसी की बेड़ियाँ,
ये धड़कनों की नादें, यादें बनी बेसब्रियाँ।
फिर से तू क्यों मुझे आज़माए ना,

ये मेरे निर्मोही क़दम, क्यों तुझ तक जाएँ ना,
ये ख़ुमारी बने बादल, क्यों तुझको फिर बरसाएँ ना।

अंधक उसूल हैं, या बंधक रसूल है,
या ख़ुदा, मुझमें मेरा सा आज़ बेख़बर सा क्यों है।
मेरी मुझसे क्यों तू पहचान कराए ना। 

वो ख़्याल, जो दरख़्त बन के मुझमें उग आया है,
ख़िज़ां हुई शाख़ों पे, प्यार के फूल क्यों तू खिलाए ना।

ऐ प्रियतमा मेरी, क्यों तू मुझमें फिर उतर आए ना,
साँसों में गिरती ज़िंदगी में, तू क्यों फिर समाए ना।
यादों की तरह, क्यों तू भी आए ना।

ये मेरे निर्मोही क़दम, क्यों तुझ तक ले जाएँ ना,
ये ख़ुमारी बने बादल, क्यों तुझको फिर बरसाएँ ना।



ग़ज़ल:

ख़ुमारी बने बादल। 


 ये मेरे निर्मोही क़दम क्यों तुझ तक जाए ना,
 ख़ुमारी बने बादल, तुझको क्यूं बरसाए ना।

 वक़्त की साकलें,  हैं बेबसी की बेड़ियाँ,
धड़कनों की नाद-ए -हद, अनहद क्यूँ बन जाए ना।

 बेखयाली जो दरख़्त बनकर मुझमें उग आया ,
 ख़िज़ां की शाखों पे प्रेम -सुमन क्यूं तू खिलाए ना।

 अंधक उसूल हैं या बंधक रसूल है,
मुझमें ही मेरा अक्स क्यूं मुझको नज़र आए ना।

 साँसों में गिरती ज़िंदगी में है तेरा निशाँ,
तेरी ही याद क्यूं फिर मुझमें समाए ना।

 ओ मेरी प्रियतमा, क्यूं तू मुझमें उतर आए न,
ख़्वाबों में है जो सूरत, आँखों में समाए ना।


ग़ज़ल

तुम रूठते नहीं, तो हम मनाएँ कैसे,
हुनर-ए-मनाने को फिर आज़माएँ कैसे?

कितनी धड़कनें बिन धड़के गुज़र गईं,
दहशत-ए-गर्दिश-ए-मंजर दिखाएँ कैसे?

गुफ़्तगू करती हैं ख़ामोशियाँ तेरे–मेरे दरमियाँ,
अंजाम-ए-क़त्ल की दास्ताँ सुनाएँ कैसे?

तसव्वुर में अब भी है तेरी रानाई,
इस बेकरार दिल को फिर बहलाएँ कैसे?

ख़्वाब टूटते हैं तेरी तलब में रोज़,
इस हिज्र की शिद्दत को छुपाएँ कैसे?

बता दो कि अब भी है कोई निस्बत,
'वृहद' इस मोहब्बत को बचाएँ कैसे?

मेरी शायरी ।

१  

ग़र मेरे रूह-ए-सुकून का इल्म है तुझे दिल-नशीं,

तो ये भी मान कि ज़ुल्मत-ए-शब भी तुझसे ही है।

तेरा ही नाम लेकर रौशन किए थे दिल के चराग़,

मगर अफ़सोस, इस रोशनी में साया भी तुझसे ही है।

२ 

ये मेरे यक़ीन का इम्तिहान है, 
कि हूँ तेरे दिल में मैं भी कहीं।


तेरी बिरहा की तड़प बता रही है, 
कि हूँ तुझमें ज़िंदा मैं अब भी कहीं।


३ 

बर्बादियों के आख़िरी मंज़र की अंजुमन में,

ख़याल बरबस यूँ उतर आया…

तेरी दीद की थोड़ी सी धूप दिख जाए,

बसर-ए-नूर का आबे-हयात छलक जाए…


बहर-दर-बहर अशआर बहे इस क़दर,
बे-वफ़ा यार में बुझ गए शब ओ सहर।

इतनी बेगारी में बैठे है

तसव्वुर ए यार लिखते हैं

न कुछ कहते हैं न सुनते हैं

तेरी याद में तुझे लिखते हैं


बेख्याली, बेदिली का अलम न पूछो

ए मुश्यरे-दीदों

की यादों से ख़ाक हो सनम लिखते हैं



आपके शब-ए-ग़म की महफ़िलों के, दीवाने तो थे बहौत,
हम शब-ए-तन्हाई में, जुगनू बने, लशकारे बिखेरते रहे।

७ 

तुम आये मेरे जिंदगी में ऐसे
उमसाई गर्मी में गिरती हो बारिश जैसे।

८ 

तुम "हाँ" जो कह दो,
तुम्हारे ज़ख्मों को चूमकर आज़ाद कर दूं,
जो तुम इन्हें सहेजना चाहो,
इन्हें गीतों और ग़ज़लों में आबाद कर दूं।



मतला से मक़ता तक एक सिलसिला चला,
उनके हुस्न का हर बयाँ ग़ज़ल हो चला। 

१०
तसव्वुर से बज़्म, बज़्म से रुख़सत,
यूँ मुकम्मल हुई एक ज़िन्दगी।

रुख़सत से तनहाई, तनहाई से ख़ामोशी,
ख़ामोशियों में ही आबाद रही एक ज़िन्दगी।

११ 
हर वो शख्स जो बीता हुआ कल होता है,
जाने क्यों दिल आज भी उनको बुनता रहता है।

१२ 
वो ढूंढता रहा मुझसे दूर जाने के बहाने,
बहानों  में खोजता रहा मैं पास आने के तराने।

१३
तू न आया सनम, तेरा पैगाम आया,
तेरा मुझमें होने का, इल्ज़ाम आया।

१४ 
तुम न मिले थे, तसव्वुर-ए-इश्क़ इबादत था,
मिल के क्या गए, वजूद-ए-इश्क़ वहशत हो गया।

१५ 

शेर - दोस्ती और आज़ादी

एक रोज़ मेरे खास दोस्त ने कहा था—
"सोचो तो मिलकर दोस्त, मैं तुझमें अपनी आज़ादी की सहर देखती हूँ।"
मैंने मुस्कुराकर कहा—
"तू ही तो मेरी अभिव्यक्ति की अंतिम आज़ादी है, इस बेग़ैरत दुनिया में!"




Wednesday, March 12, 2025

तिशनगी में तृप्ति बसर हो…

 तेरी उम्मीद की लौ जले,
जैसे तेरी दीद का असर हो…

तेरा ज़िक्र — हर बात में,
जैसे कोई दूसरा हमसफ़र हो…

मरु में मृगतृष्णा बन तू चले,
"वृहद" जैसे तिशनगी में तृप्ति बसर हो…



मौन, चुप्पी और अहंकार का दुर्ग:-


तुम्हारी प्रेम-चेतना मानो बिखरने को थी,
पर तुमने अहंकार की ऐसी दुर्ग रच डाली,
कि अब तुम्हारा अहंकार ही
तुम्हारे अस्तित्व का पर्याय बन गया।

तुम्हारे मौन में अब कोई मौज नहीं बची,
वो मौन जो कभी सृजन था, संवाद था —
अब बस एक चुप्पी है,
एक बोझिल, अर्थहीन ख़ामोशी।

प्रेम की छटा जो थोड़ी बिखरने को होती,
तुम्हारे अहंकार के झरोखों से झाँकने लगती —
तो मानो अहंकार की छाया, मौन का पहरेदार,
तुम्हें आ घेरता,
और तुरंत बंद कर देता वो झरोखे।

तुमने जो दीवारें खड़ी की थीं,
अब उन्हीं में क़ैद होकर रह गए हो,
प्रेम तो अब भी द्वार पर खड़ा है,
मगर तुम्हारा मौन, उसे सुनने से इनकार करता है।

पर जानते हो?
इस चुप्पी के पार भी एक सन्नाटा है,
जहाँ तुम्हारा अहंकार भी थक कर सो जाता है,
वहाँ अब भी प्रेम साँस लेता है —
धीमे, मगर जीवित।

बस एक कदम है,
इस ऊँची दीवार को लाँघने का,
बस एक पुकार है,
उस सिमटी हुई प्रेम-चेतना को बिखेरने की।

मगर तुम जड़ बने खड़े हो,
अपनी ही बनाई कैद में —
जहाँ तुम्हें डर है कि,
अगर अहंकार गिरा,
तो शायद तुम्हारा पूरा वजूद ही
बिखर जाएगा।

पर यक़ीन मानो,
वो बिखरना ही तुम्हारा सृजन है,
वहीं से जन्म लेगा एक नया तुम —
जिसमें मौन भी गाएगा,
और प्रेम भी बह निकलेगा।

और आखिर में, ये सच्चाई देखो —
अहंकार की ऊँची अट्टालिकाएँ,
संसार के दिए नाम ओ नक़ाब —
ये जान लो, विप्र, ये तुम्हारी पहचान नहीं।

इन अहंकार के दुर्ग में छुपी
वो मासूम सी, उड़ने को बेताब चिरैया — बेनाम,
वो ही तो असली तुम हो,
जिसे तुमने ख़ुद अपने ही हाथों से कैद कर दिया है।

अब उस चिरैया को उड़ने दो,
उस प्रेम को बहने दो,
अहंकार की छाया को पिघलने दो,
मौन को गाने दो।

वो बिखराव ही तुम्हारा सृजन है,
वही तुम्हारा असली होना है।

Saturday, March 1, 2025

"तसव्वुर से ताबीर तक"

वादा

Vrihad


आपके जाने से,
आपके आने के इंतज़ार तक
आपके न होने से,
फिर से होने के इल्म तक।

इश्क़ की चेतना से,
जुदाई की वेदना तक
फिर वेदना में भी आस रखने तक
तसव्वुर को ताबीर होने तक
मजमून-ए-इश्क़ की दास्तान फ़लसफ़ा होने तक

इस सूने से दिल में फिर से दस्तक होने तक
महरूमियत-ए-शिद्दत से
मोहब्बत की ज़िद होने तक,

इस ज़िंदगी के सफ़र में,
आपके हमसफ़र होने की
छोटी-सी छोटी उम्मीदों तक
मैं खड़ा रहा हूँ उसी मोड़ पर
जहाँ मिलने का आपने वादा किया था।

...एक आँसू भी न टपका निर्मोही की आँखों से,
पलकों ने हौसलों को
तोड़ने की सिफ़ारिश तो बहुत की,
पर यक़ीन काँच के नहीं होते।


सागर के विरह की दास्तान




तुम एक रोज़ सागर किनारे आए थे,

सागर किनारे की रेत पे पड़ी धूप-से

तुम भी चमकते हुए, खिले हुए थे।

तुम रेत से उजली, शुद्ध — और मैं

साहिलों सा था, अपनी मर्यादा में उलझा हुआ।

तुम्हें छू लेने के इरादे — कभी उठता, कभी गिरता —

मैं भी किनारे तक पहुँचता,

तुम्हारे कदमों को चूमता, फिर लौट आता।

मेरा उतावलापन कहीं जलजला न बन जाए,

इसलिए मैं अपनी मर्यादाओं की हद में रहा —

बस तुम्हें छूता और लौट आता।


वो मिलन क्षणभंगुर था,

और तुम चले गए।

ये इल्ज़ाम देकर मैं रेत पे लिखे

अपने ही नाम को मिटा गया।

पर ये तुमने देखा ही नहीं —

अपनी सीमाओं की मर्यादा में लिपटा हुआ मैं,

तुम्हें बस छू कर आ गया।


तुम फिर आना उस तट पर,

फिर मिलेंगे, उसी रेत पर।

मैं साहिल बन तुम्हें छू जाऊँगा,

शायद इस तरह — बस कुछ देर, कुछ पल —

तुम्हें छूकर फिर तुमसे दूर हो जाऊँगा।

तब तक, साहिलों की उतरती-चढ़ती लहरों पे सवार,

मैं हर रोज़, हर पल करूँगा —

तुम्हारा... बस तुम्हारा इंतज़ार।

Thursday, February 27, 2025

Anomalies

Anomalies in the equation



"If you believe in anomalies, 
don't live in equations. 
If you live in equation, 
love will always be an anomaly."

"वो आख़िरी बात: जुदाई का वो लम्हा जो हमेशा के लिए याद बन गया"

 
"Emotional farewell of a couple in an auto-rickshaw on the dusty streets of Delhi, holding hands for the last time


वो तेरी कही आख़िरी बात,
वो तेरा हाथों में मेरा हाथ,
दिल्ली की सड़कों पे ऑटो में,
हमारा गुज़रा आख़िरी साथ।
और तेरी कही वो बात,
मुझे तन्हा कर गई...

उस रोज़ मैंने जाना,
आंखों में भी समंदर बसते हैं—
मन की माया छलने को बेताब बैठी थी,
कुछ होश था, कुछ बेहोशी थी,
और साथ में तुम भी थीं वहीं,
मेरे हाथों में अपना हाथ लिए।
वो सड़कें, हां वो सड़कें,
धुंधली सी वो सड़कें,
जाने क्या आंखों से छीन गईं,
कुछ होश रहा, कुछ बेहोशी सी थी,

कुछ याद रहा तो बस...

वो तेरा हाथों में मेरा हाथ,
वो दिल्ली की सड़कों पे ऑटो में,
हमारा गुज़रा आख़िरी साथ,
और तेरी कही वो बात,
मुझे तन्हा कर गई...

अभी कल की तो बात थी,
जब हमारी पहली मुलाक़ात थी,
अंजान शहर का मुसाफ़िर,
तेरे दर पे आया था,
कहने को थी कोई बात,
जो अधूरी सी रह गई।

और जो कुछ बाक़ी रहा—

वो तेरा हाथों में मेरा हाथ,
वो दिल्ली की सड़कों पे ऑटो में,
हमारा गुज़रा आख़िरी साथ,
और तेरी कही वो बात,
मुझे तन्हा कर गई...

उस रोज़, हां उस रोज़,
हाथ छूटने को राज़ी न थे,
एक वायदे पर जिए थे,
वायदे टूटने को थे।
जैसे-जैसे मंज़िल करीब आई,
मन में रह-रह कर सितम का सिलसिला बना,
खाली होते मंजरों में जो बाक़ी रह गया—

वो तेरा हाथों में मेरा हाथ,
वो दिल्ली की सड़कों पे ऑटो में,
हमारा गुज़रा आख़िरी साथ,
और तेरी कही वो बात,
मुझे तन्हा कर गई...

वक़्त-ए-रुख़्सत की घड़ी जो आई,
आंखों में था अंधियारा सा छाया,
सफ़र-ए-रुख़्सत में अश्कों की सरिता,
जो चुपचाप बहती चली आई।
उन अश्रुसज्जित आंखों को कहनी थी कोई बात,
जो फिर अधूरी ही रह गई।

और जो साथ रह गया—

वो तेरा हाथों में मेरा हाथ,
वो दिल्ली की सड़कों पे ऑटो में,
हमारा गुज़रा आख़िरी साथ,
और तेरी कही वो बात,
मुझे तन्हा कर गई...

और वो वादा जो अधूरा रह गया।

Wednesday, February 26, 2025

बुझते अलाव की चिंगारी

एक आदमी सर्द बर्फीली रात में अलाव के पास बैठा है, हाथों में उस लड़की की तस्वीर थामे जिसे उसने कभी बेइंतहा चाहा। उसके चेहरे पर यादों की गर्मी और तन्हाई की ठंडक साफ झलकती है।"



 ठंड की ठिठुरन सी जिंदगी में,
बुझते अलाव की चिंगारी सी,
कुछ राहत है तुम्हारी यादों में।

बोलती हैं तस्वीर भी तुम्हारी अकसर
जो तुम कभी चुप सी हो जाती हो,
जाड़े की धूप भी न हो कभी तो
कांपते लफ्ज़ संभल जाते हैं इन्हें देख कर।

Monday, February 24, 2025

एक सुबह ऐसी भी हो

 



Ek nazuk aur mehka hua manzar jahan muskaan ki halki silvaton mein mohabbat apni dastaan likh rahi hai. Jhuki aankhon ki sharmindagi aur rukhshar par khilti khushiyon ki tasveer.


मखमली रुख़सार की चादर पर 
अधरों के किनारे से हौले-हौले
एक ख़ुशी सी चढ़ती,
और रुख़सार पर खिल जाती थीं
ख़ुशियों की सिलवटें।

उन सिलवटों से बनीं हल्की हिलकोरें,
सुरमई और कुछ खोए-से लगते थे,
और आँखें… हाय, वो झुकी हुई आँखें,
शर्मीली अठखेलियाँ लेती थीं।

नज़ाकत बन के एक सुबह,
कभी यूँ हम पर गुज़री थी,
उन दिनों जब हमारी बातें हुआ करती थीं,
सुबह कितनी हसीन हुआ करती थी।

दिली चाहत भर रह गई —
कि फिर एक सुबह ऐसी भी हो…

Sunday, February 23, 2025

🌹 फ़रमान-ए-इश्क़

Romantic illustration inspired by an Urdu poem, reflecting love and elegance.

✍️ Vrihad

आतिशी बाज़ियां दिल करने लगा,
आज फिर आपने जो हमें गुनगुनाया।
महफ़िलों में है रौनक, आपके होने से,
ये सफ़र इतना भी तन्हा न रहा अब।

गुलफ़ाम-ए-मोहब्बत में सजी एक वफ़ा,
आंधी सी चली आज।
लुट गए गुलबांग-ए-मोहब्बत की हँसी उड़ाने वाले,
और हम फ़कीरी में शहज़ादे हो गए।

फ़रमान-ए-इश्क़ की तकीद तलब कर,
महरूमियों में फ़कीरी न बसर हो।
इत्तिला-ए-दिल्लगी-ए-दिल
फिर नाचीज़ न हो।


Saturday, February 22, 2025

लख-लख बधाइयाँ जी

 लख-लख बधाइयाँ जी जो आप आये, इस धरती पर,
 ये दुनिया सतरंगी हो गयी है। 

ये आपकी खिलती हुई हँसी ही तो है, जो फूलों में खिलती है।
ऋतुओं में बसंत हैं आप, जो एक बार मुस्कुरा दें 
तो खिल जाते हैं, मुरझाने वाले फूल भी सभी।

यूँ ही खिले-खिले से रहिये सदा, यही है रब से दुआ, 
ये भी ले लीजिये मेरी सदा, हंसते-हंसाते रहिये, 
यूँ ही खिलते, खिलाते, खिलखिलाते रहिये।

चंचलता-नज़ाकत की, है आपसे ही तो सजी, 
भंवरा आवारा भी, गुंजन जो करे वन-उपवन में, 

वो भँवरे को मतवाली करती सुगंध, आपकी ही तो है।

ये चाँद, ये चाँदनी, ये नज़ारे हसीन, सब मेहरबानियाँ ही तो हैं, बस आपकी।
बहुत शुक्रिया जी जो आप आये, संग अपने बसंत को लाये, हर दिन को त्योहार बनाये।

तुम्हारा, बस तुम्हारा।

 
Ek jazbaati manzar jahan do aashiq apni aakhri mulaqat mein judaai ke ehsaas ko alfaz mein dhal rahe hain. Do dil, jo kabhi ek the, ab alag ho rahe hain, lekin unki aankhon mein mohabbat ki woh roshni ab bhi jhalak rahi hai.

क़यामत के रोज़ मिले हैं, 
तो भी आख़िरी दफ़ा है, 
जो कुछ पहले, हाल भी पूछा होता, 
तो क्या वो भी आख़िरी दफ़ा ही होता? 
जो ये क़यामत की बात न होती,
तो क्या अपनी बातें भी न होतीं?

सुबह तो होती रही है, 
आगे भी होंगी 
शामें भी ढलती रही हैं, 
आगे भी ढलेंगी 
क़यामत भी तो कोई,
 आज की बात नहीं।

हर सफल प्रेम कहानी,
 अधूरी रही है, 
क्या तुम्हारी और मेरी कहानी भी,
 अधूरी रह जाएगी?

अंजाम– ए–फ़िक्र की बात, 
अब रहने दो 
इस दिल को तुम्हारी तलाश, 
अधूरी रहने दो 
न तुम पूछो कभी,
मेरा हाल-ए-दिल 
न मैं जानूँ कि मैं कैसा हूँ, 

बस ये जान लो,

ये चराग़-ए-इश्क़ से रोशन दिल, 
तेरे नाम से जला है,
 ये शम्मा यूँ ही, तेरे नाम की जलती रहेंगी।

तुमसे मिल कर तुम में मिल चुका हूँ 
तुम्हें जानकर तुमसा ही हो चुका हूँ, 
अब कोई ख़ुद को कितना ही जाने 
अब कोई ख़ुद को कितना ही पहचाने।

कोई मुझसे मेरा नाम पूछे, ज़ुबाँ पे तेरा नाम आ जाता है, 
कोई मुझसे मेरा पता जो पूछे, हरसू तू ही तू नज़र आता है।

मैं जबसे तुम हो चुका हूँ, 
ये दिन-दुनिया, गीत-ग़ज़ल 

सब तुमको ही समर्पित कर चुका हूँ, 
मेरा मुझमें कुछ नहीं, 
सब कुछ तुम को अर्पण कर चुका हूँ।

तुम चाहो तो, 
हाल-ए-दिल न पूछो कभी पर, 
इस धड़कते दिल को 
तुम्हारी, तुम्हारी ख़ुशियों की परवाह है, हमेशा रहेगी।

तुम्हारा, बस तुम्हारा।

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