कभी कोई जुदाई, ख़ुदा की तरह—नज़र नहीं आती, पर हर जगह मौजूद रहती है।
यह ग़ज़ल, एक ऐसे ही अक्स की परछाईं है—जो लहू में सिला रहता है, ज़ख़्म में हरा-भरा।
This blog is dedicated to poetry born from my tragedies and experiences—events that have allowed my emotions to flow into the stream of verse.
कभी-कभी किसी की यादें सिर्फ़ स्मृतियाँ नहीं होतीं —
वो मौसमों में उतर आती हैं,
बादलों में घुल जाती हैं,
कभी-कभी किसी की यादें सिर्फ़ स्मृतियाँ नहीं होतीं —
वो मौसमों में उतर आती हैं,
बादलों में घुल जाती हैं,
छाँव में ठहरती हैं,
और धूप में चुभने लगती हैं।
ऐसे ही एक अनुभव की कविता है ये।
जिसमें एक ‘तुम’ है —
जो गया भी नहीं,
और बीता भी नहीं।
तुम्हें देखा नहीं कब से...
फिर भी ये लगता है —
तुम्ही तुम हो मेरे इस दिल में।
तुम्हें न देख कर भी,
तुम्हें ही देखना —
बस एक आदत-सी हो गई है।
ये मेघ-मल्हारों-सी
उमड़ती-घुमड़ती यादें —
बादलों के अंदाज़ में,
थिरकते हुए देखा किया है मौसमों में तुम्हें।
एक धरा थी, मुझे थामे —
और एक तुम आए:
कभी धूप में झुलसाते,
दो बूँद नीरा को तरसाते;
कभी छाँव में अविरल विराम,
कभी अंबिया की मीठी आराम।
तुम —
राहत और आहत —
सबमें समाए रहे।
तुम्हें देखे ज़माना बीत गया,
पर, जाने वो कैसा अतीत था —
जो मुझसे बीतता नहीं,
जो मुझमें बितता नहीं...
(...लेकिन धूल हटानी तुम्हें ही होगी)
इंद्रियाँ अक्सर धोखा देती हैं,
और एहसास भी कभी-कभी फ़रेब बन जाते हैं।
मैं तुम्हारी आँखों से नहीं देखता इस दुनिया को —
मेरी अपनी नज़र है, अपना नज़रिया है।
और यही मेरी खामी नहीं, मेरी ख़ूबी है —
मैं अधूरा हूँ… इसीलिए तो पूरा हूँ।
मैं तुम्हारे लिए बस एक आईना बन सकता हूँ,
जो तुम्हें तुम्हारा ही अक्स दिखा दे —
बिना किसी लाग-लपेट के।
पर आईने का काम दिखाना है,
साफ़ रखना तुम्हारा फ़र्ज़ है।
तो अगर चाहता है कि
मैं वही बनूँ, जो मैं तेरे लिए बना हूँ —
तो इस आईने से धूल हटाते रहना दोस्त…
वरना मैं धुंधला हो जाऊँगा,
और तू — खुद को कभी देख न पाएगा।
भूमिका :
कुछ सवाल समय बीत जाने के बाद आते हैं… वो जब पूछती है तो शब्द नहीं, अनुभव जवाब देते हैं। ये कविता उसी एक संवाद पर आधारित है — एक मौन उत्तर, एक शांति भरे शून्य की ओर बहती आत्मस्वीकृति।
उसने पूछा:
"मेरे बिना… बिना बताए चले जाने के बाद,
क्या किया? तू कैसे जी पाया?"
मैंने कहा:
शायद…
जो किया, जैसे जिया—
अब वो सब कोई मायने नहीं रखता।
मैं एक मौन दर्शक बन गया,
धीरे…
निश्चित रूप से…
अराजकता के बीच,
बस यही कर सकता था।
मैंने देखा—
मन की हर तरंग
तन पर उतरती गई।
उन्हें उठते देखा…
फिर मिटते देखा।
वे लहरों की तरह आईं,
और लहरों की तरह चली गईं।
उस नीरवता में,
एक सत्य उभर आया—
ये सब नश्वर था,
एक विचार…
एक क्षणिक अनुभूति।
अगर वो प्रेम होता,
तो स्थायी होता।
वो टिकता…
सदियों तक।
और तब—
न पूरी तरह से चंगा,
न ही पूरी तरह टूटा,
बस…
मैं एक शांति भरे शून्य में डूब गया।
— वृहद
ग़ज़ल
शीर्षक:
क्षणिक प्रेम, चिरंतन महक
लेखक: वृहद
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प्रस्तावना:
कविता:
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समापन विचार:
(मुक्तछंद | समाज | दर्शन)
सीमाएं सिर्फ़ नक्शों पर नहीं बनतीं,
कई बार हमारी सोच, भाषा, और विश्वास भी
इंसानों को बाँटने लगते हैं...यह कविता उन्हीं "अदृश्य लकीरों" की बात करती है — जो इंसानों के बीच कभी धर्म, कभी देश, कभी विचार के नाम पर खिंच जाती हैं।
अल्ला, भगवान,
हिन्दू-मुस्लिम
कुफ्र-काफ़िर
ये तेरी-ये मेरी —
अस्तित्व विहीन सब
जमात बाँटती — अदृश्य लकीरें।
भारत - पाक
नापाक - जिहादी
सौम्यवादी - उग्रवादी —
एक सिंधु का पानी,
अत्तफ़ाली फितरत में —
क्यूँ देश बाँटती — अदृश्य लकीरें।
घात,
आघात —
ललकार,
प्रतिहार —
शहीद-शहादत
नाम-ए-जंग मे नए —
अंजाम बाँटती -अदृश्य लकीरें।
कुदरत ने पैदा, हमको-तुमको एक किया —
जीने को सब साधन दिया, प्रचुर दिया...
फिर —
आपस में ये मारामारी क्यों?
तुम सदृश,
मैं सदृश —
बाँटती क्यूँ? तुम्हें-मुझसे
—अदृश्य लकीरें।
~वृहद
ख़्वाबीन-स्याही में डूबा
रोज़ तुम्हें लिखता रहता हूँ,
बिखरे लफ़्ज़ों में ढलकर
तेरी सूरत गुनता रहता हूँ।
ख़ामोशियों में भी
तेरी आहट सुनता रहता हूँ,
हर साँस में जैसे
तेरे नाम को बुनता रहता हूँ।
तुम आकर पढ़ जाना
वो सब जो मैं सहता रहता हूँ,
जो लफ़्ज़ों में न आ सका
वो अशआर में कहता रहता हूँ।
साक्षी लम्हों की चादर में
तेरा अक्स ही देखता रहता हूँ,
अधूरी छंदों की थरथर में
नीत-संग रुँधता रहता हूँ।
तेरे शहर की गलियों में
हर मोड़ ताका करता रहता हूँ,
तेरी कोई ख़बर न आए
फिर भी तुझसे जुड़ता रहता हूँ।
~वृहद
आगोश-ए-हयात में, शब-ए-सोहबत थी जो गुज़री,
लम्स-ए-ज़िगर ख़्वाबों से, हमसे उतारा न गया।
तेरी रूठने की अदा पर, मेरे मनाने का फ़साना,
जलती रातों की बे-नींद आहों में, पुकारा न गया।
दिल-जला बहुत कि, करवा-चौथ का व्रत मेरे लिए,
मोहब्बत लुटाई ग़ैरों पे, हमसे स्वीकारा न गया।
तेरी चूड़ियों की कलीरें, कसक दिल में रह गईं,
'वृहद' को तेरे सर टीका, कभी बनाया न गया।
~वृहद
मरहूम मुहब्बत हमसे दफनाया न गया......
तन्हा-ए-उम्र भी हमसे, तुझको छुपाया न गया,
सादगी में भी तेरा हुस्न-ओ-जलवा भुलाया न गया।
आँखों से पैहम तवाफ़-ए-कूचा-ए-यार न गया,
हर शय पे मात खा के भी जीना, हमारा न गया।
जो लम्हा टूटा वहीं, रुख़्सत-ए-इश्क़ के वक़्त,
मौसमी तल्ख़ियों सा वो ज़हर, उतारा न गया।
तेरी रूठने की अदा पर, मेरे मनाने का फ़साना,
जलती रातों की बे-नींद आहों से पुकारा न गया।
दिल जला बहुत कि करवा-चौथ का व्रत था मेरे लिए,
और मोहब्बत जो ग़ैरों पे लुटी, हमसे स्वीकारा न गया।
तेरी चूड़ियों की कलीरें, कसक बनके रह गईं,
‘वृहद’ को तेरे सर का टीका कभी सजाया न गया।
~vrihad
तेरी यादों का नरऊँ-नरऊँ नशा आँखों में है,
एहसासें धड़कन बनी, सिमरन साँसों में है।
तेरी चूड़ियों की खनक अब भी कानों में है,
तेरे छुवन का कंपन, रोम-रोम पनाहों में है।
तेरे इल्म-ए-नूर की बारिश हर-सूं बहती रही,
तेरी पायल की छनक से बसी धूप निगाहों में है।
तेरी ग़ुंचा-सी हँसी बसी अब भी इन राहों में है,
तेरा नाम ही जैसे सदा इन सदा-गाहों में है।
तेरे ख़्वाबों की किरनें उतर आईं निगारों में,
तेरे इश्क़ की महक आज भी मेरी चाहों में है।
तेरे लफ़्ज़ों की नमी पलकों की इन छाँवों में है,
तुझसे छूटा जो भी रिश्ता, वो अब दुआओं में है।
रणभेरी
—वृहद
भूमिका
यह कविता नहीं, चेतना की गूंज है। यह शब्द नहीं, शहीदों की अग्निशिखा हैं। यह आवाज़ है उन सपूतों की जो पहलगाम की घाटी में बलिदान हुए। यह अपील है हर भारतवासी से—कि अब मौन नहीं, जागरण हो। यह युद्ध किसी धर्म या मज़हब से नहीं, बल्कि उस विकृत मानसिकता से है, जो भारत की आत्मा पर आघात करती है।
श्रद्धांजलि
उन वीरों को नमन—जो वादियों को अपने रक्त से सींच कर अमर हो गए। ये कविता उन्हें समर्पित है।
भाग 1: रण की पुकार
याचना नहीं अब रण होगा,
जीवन-जय या मरण होगा।
छुप ले चाहे जितना तू मुजाहिद,
कायरता तेरी, वादियों में दफ्न होगा।
छुप ले, फिर ले, बन के तू मुसाहिब,
तेरा सर कलम कर इतिहास लिखेंगे।
तेरी बर्बादियों से, वादियाँ आबाद होंगी,
अब जिहादी सपने चिता में धू-धू होंगे।
जब-जब जिहाद का नारा होगा,
पैरों तले कुचला अंजाम तुम्हारा होगा।
छुप लिया तू बिल में, आस्तीन के साँप,
अधर्म के, विध्वंश-विनाश का नारा होगा।
शमशीरें अब आरती बनेंगी,
हर शहीद की वाणी गूँजेगी।
तेरी हर चाल को देखेगा भारत,
अब राष्ट्र-चेतना ना बूझेगी।
भाग 2: जन-जागरण का शंखनाद
जागो इस देश के सपूत वीरों,
जागो इस देश के धरोहर शमशीरों।
जागो, मिट्टी की सौगंध पुकारती,
जागो, राजपूत, मराठा, अमर कीर्ति वीरों।
उठो गगन को फिर चीरो खड्ग से,
उठो गूंजे रणभेरी शिव-संभु रथ से।
उठो जहाँ तपे, लहू बहे जहाँ,
उठो सीना तान, युद्ध दो लपट से।
यह गीत नहीं, यह हुंकार है अब,
यह शौर्य की अखंड पुकार है अब।
जो बने शरणस्थल अधर्म के लिए,
उनका भी अब पराभव-संहार है अब।
भाग 3: माँ भारती की शपथ
उठो, कि पुलवा-पहल न हो फिर इस देश में,
उठो कि शत्रु छुपा, देश में कायरता के भेष में।
उठो रण पुकारती, करने को फिर एक इंकलाब,
उठो, जवानों, उठो नादानों, पूजित करने धर्म देश में।
ना सहन की भाषा अब काम आएगी,
अब तो शस्त्र ही शांति को समझाएगी।
हर पाक कपट का नक़ाब उतरेगा,
अब चिंगारी ज्वाला बन छा जाएगी।
जहाँ मज़हब बना है अब मौत की ढाल,
वहाँ धर्म नहीं, है अंधता का जाल।
उठो, ओ सपूतों, फाड़ दो ये आवरण,
कि भारत बने फिर तेजस्वी, भाल।
माँ भारती, पहलगांव से है पुकारती,
निर्दोष विहारी, लाशें हैं चितकारती।
वादियों में मौसमों में सघन नाराज़गी,
स्वर्ग धरा की, सिंचित लहू से, है कराहती।
भाग 4: शुद्धि और संहार
वेदों का स्वर फिर से उठेगा,
गंगाजल से शस्त्र पवित्र होगा।
गद्दारों के ख़ून से सिंचित होगी धरती,
देश के भक्तों में विश्वास अमिट होगा।
ना अब छल चलेगा, ना शरण मिलेगी,
सत्य की जय-घोष नगर-नगर बजेगी।
तू डर, तू थर-थर काँप अब,
पाप की जड़ पे प्रहार सजेगी।
कभी जो आँधी बन बहे थे तुम,
अब राख बन उड़ जाओगे।
जो मौत बाँटते फिरते थे सदा,
अब उसी मौत में खो जाओगे।
समापन: नव-समर्पण
रण की यह रचना अब मंत्र बन गई है,
शब्दों की नहीं, यह अस्त्र बन गई है।
जो इसे सुने, वह मौन ना रहे,
यह वाणी अब युग-धर्म बन गई है।
~ वृहद
जो तुमने हमें, इशारा कर दिया होता
तो हमने तुम्हें जाने न दिया होता।
रात्रि की आख़िरी पहर थी,
सुनसान सड़कों पर तुम अकेली थी,
एक पोस्ट लैंप की टिमटिमाती रोशनी के नीचे
एक ओर तुम खड़ी थी, एक ओर मैं।
तुम्हें दाहिने जाना था, मुझे बाएँ जाना था,
मगर क़दमों की झिझक ने हमें रोक रखा था।
हवा में घुली थी कुछ अनकही बातें,
मौन में उलझी थीं टूटी मुलाक़ातें।
चाहता था कि एक बार तुम पलटकर देखो,
कि उजालों से नहीं, अंधेरों से रिश्ता गाढ़ा होता।
अगर आँखों ने तुमसे सवाल कर लिया होता,
तो शायद होंठों को कुछ कहने का बहाना मिल जाता।
तुम चली गई, मैं वहीं रह गया,
वो लम्हा वहीँ कहीं ठहर गया।
अगर दस्तक वक़्त पर दे दी होती,
तो शायद अंज़ाम कुछ और हुआ होता।
बातें होती थीं रात-दिन,
रैन की, चैन की... कुछ सिसकती आहें थीं,
गरम चाय की नरम साँसों में,
प्यार उन पलों में पलता रहा,
गुफ़्तगू का सिलसिला यूँ ही बहता रहा।
फिर एक रोज़—
हमारी बातें जुगलबंदी बन गईं,
जैसे एक कविता दो धड़कनों में चलती हो।
तेरी ख़्वाहिश मुझमें धड़कने लगी,
मेरी तन्हा रातों में तू जागने लगी।
उस अंतर्जाल के झरोखों के पट पर,
हम कुछ यूँ मिलते थे—
जैसे एक सफ़र के दो राही,
चाँद और छाया बन
एक-दूजे की परछाइयाँ चलते थे।
गुफ़्तगू का वो लम्हा—
सबसे अनमोल था।
एक मेरी ही ख़ता थी,
जो मुझसे छूट गया था।
वो अहद-ए-वफ़ा का पल...
शायद एक ख़्वाब सा था।
(जहाँ दिल और लफ़्ज़ दोनों तुम्हारे हैं…)
…और अगर कभी उस सफ़हे पर
कोई नया लफ़्ज़ लिखो—
तो उसमें मेरा नाम मत लेना।
बस एक बेमानी ख़ामोशी रख देना,
जिसमें मेरी पूरी मोहब्बत दफ़न है।
— वृहद
“कुछ एहसास सिर्फ़ सिसकियों में शायर होते हैं।”
(एक रूबाईनुमा कविता)
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- वृहद
(दिनांक: 6 अप्रैल 2025)
स्थान: यादों की दीवार के सामने बैठा मन
लेखन: वृहद
बिखरे कुंतल, उन्मुक्त है नारी,
पुलकित अधर, मुस्कान आभारी।
उन्नत उरोज, श्वेत तन रज धारी,
लसद-कटि, संग लगे वो न्यारी।
नैनन से जो देखे नारी,
हिए में उतरे चले कटारी।
बालखावत अदा सुकुमारी,
चंचल गति, मृदु छवि प्यारी।
नाज़ुक कलियाँ, कंगना भारी,
अंग-अंग में शोखी सारी।
धीमे बोलत फूल बिसारी,
चलत चपला, लहर पखारी।
मंद हँसी, चंद्रिका छा री,
नूपुर प्रीत की राग सुना री।
पथ-पथ चंपा चून बिछा री,
पग पैजन संग, फाग लुटा री।
काव्य टिप्पणी:
यह कविता नारी सौंदर्य के उस पक्ष को चित्रित करती है, जहाँ शृंगार आत्मा की भाषा बन जाता है।
वह केवल एक दृश्य नहीं, अपितु अनुभूति है — जीवन, राग, और रस का आलंबन।
यही नारी, हमारे आगामी महाकाव्य की प्रेरणा भी है।
तख़ल्लुस: वृहद
रदीफ़: "घर बसा लो"
क़ाफ़िया: रही है / कैद में / चलती है / मगर / गए
बह्र: मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
ज़िंदगी कोर्ट की तारीख़ों में साँसें ले रही है,
ज़ुल्मत-ए-ख़ल्क़ तो देखो, कहते हैं "घर बसा लो"।घर की जमानत है तारीख़ों की कैद में,
बरकत-ए-जमाअत तो देखो, कहते हैं "घर बसा लो"।दो तारीख़ों के दरमियाँ बस साँस चलती है,
ठौर-ठिकाना नहीं, और हुक्म है—"घर बसा लो"।चिता पे ज़िंदगी सिसकती रही मगर,
तमाशबीन ये कह गए—अब तो "घर बसा लो"।'वृहद'! हर इक दरख़्त में जलती हैं कुछ उँगलियाँ,
छाँव भी मांगी तो कहते हैं—"घर बसा लो"।'वृहद'! अरमान सारे तारीख़ों में घुल गए,
अपनों का शोर है, कहते हैं—"घर बसा लो"।
— वृहद