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Friday, April 25, 2025

मरहूम मुहब्बत हमसे दफनाया न गया......

तन्हा-ए-उम्र भी, हमसे तुमको छुपाया न गया,
सादगी में भी हमें, तुमसे दिल लगाना न गया।

ये कैसा टूटा इक लम्हा, रुख़्सत-ए-इश्क़ पर,
बेज़ार मौसमी तल्ख़ियाँ, हमसे गुज़ारा न गया।

आगोश-ए-हयात में, शब-ए-सोहबत थी जो गुज़री,
लम्स-ए-ज़िगर ख़्वाबों से, हमसे उतारा न गया।

तेरी रूठने की अदा पर, मेरे मनाने का फ़साना,
जलती रातों की बे-नींद आहों में, पुकारा न गया।

दिल-जला बहुत कि, करवा-चौथ का व्रत मेरे लिए,
मोहब्बत लुटाई ग़ैरों पे, हमसे स्वीकारा न गया।

तेरी चूड़ियों की कलीरें, कसक दिल में रह गईं,
'वृहद' को तेरे सर टीका, कभी बनाया न गया।

~वृहद 



मरहूम मुहब्बत हमसे दफनाया न गया......
 

तन्हा-ए-उम्र भी हमसे, तुझको छुपाया न गया,
सादगी में भी तेरा हुस्न-ओ-जलवा भुलाया न गया।

आँखों से पैहम तवाफ़-ए-कूचा-ए-यार न गया,
हर शय पे मात खा के भी जीना, हमारा न गया।

जो लम्हा टूटा वहीं, रुख़्सत-ए-इश्क़ के वक़्त,
मौसमी तल्ख़ियों सा वो ज़हर, उतारा न गया।

आगोश-ए-हयात में, शब-ए-सोहबत जो ठहर गई,
लम्स-ए-ज़िगर था ख़ूँ-लम्हा — हमसे निकाला न गया।

तेरी रूठने की अदा पर, मेरे मनाने का फ़साना,
जलती रातों की बे-नींद आहों से पुकारा न गया।

दिल जला बहुत कि करवा-चौथ का व्रत था मेरे लिए,
और मोहब्बत जो ग़ैरों पे लुटी, हमसे स्वीकारा न गया।

तेरी चूड़ियों की कलीरें, कसक बनके रह गईं,
‘वृहद’ को तेरे सर का टीका कभी सजाया न गया।

~vrihad 

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