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Friday, May 16, 2025

"तुम्हें देखा नहीं कब से..."

बीतने का नाम नहीं लेता — एक वो एहसास

कभी-कभी किसी की यादें सिर्फ़ स्मृतियाँ नहीं होतीं —
वो मौसमों में उतर आती हैं,
बादलों में घुल जाती हैं,

बीतने का नाम नहीं लेता — एक वो एहसास

कभी-कभी किसी की यादें सिर्फ़ स्मृतियाँ नहीं होतीं —
वो मौसमों में उतर आती हैं,
बादलों में घुल जाती हैं,
छाँव में ठहरती हैं,
और धूप में चुभने लगती हैं।

ऐसे ही एक अनुभव की कविता है ये।
जिसमें एक ‘तुम’ है —
जो गया भी नहीं,
और बीता भी नहीं।


तुम्हें देखा नहीं कब से...
फिर भी ये लगता है —
तुम्ही तुम हो मेरे इस दिल में।

तुम्हें न देख कर भी,
तुम्हें ही देखना —
बस एक आदत-सी हो गई है।

ये मेघ-मल्हारों-सी
उमड़ती-घुमड़ती यादें —
बादलों के अंदाज़ में,
थिरकते हुए देखा किया है मौसमों में तुम्हें।

एक धरा थी, मुझे थामे —
और एक तुम आए:
कभी धूप में झुलसाते,
दो बूँद नीरा को तरसाते;
कभी छाँव में अविरल विराम,
कभी अंबिया की मीठी आराम।

तुम —
राहत और आहत —
सबमें समाए रहे।

तुम्हें देखे ज़माना बीत गया,
पर, जाने वो कैसा अतीत था —
जो मुझसे बीतता नहीं,
जो मुझमें बितता नहीं...

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