(“बैरन होती सरगोशियां के दरमियाँ,
एक पहल-ए-तक़रीर।”
– जहाँ मौन की सीमाओं को लांघते हैं दो दिलों के अल्फ़ाज़।)
एक पहल-ए-तक़रीर।”
– जहाँ मौन की सीमाओं को लांघते हैं दो दिलों के अल्फ़ाज़।)
मैं:
"ऐ सुनो न,
मैं ही सब कहता रहूंगा?
तुम भी कुछ कहो न..."
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वो:
"लब थमे हों अगर तो,
नज़रों से कुछ तो कहो न,
खामोशियाँ भी सुनती हैं,
बस दिल से सुनाया करो न।"
वो:
"लब थमे हों अगर तो,
नज़रों से कुछ तो कहो न,
खामोशियाँ भी सुनती हैं,
बस दिल से सुनाया करो न।"
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मैं:
"आँखों के प्यालों में
तुझको आँसुओं सा भरा करते हैं,
तेरे दामन से जो निकले
उसको सलाम-ए-हर्फ़ दिया करते हैं।"
"सलाम-ए-हर्फ़ तुम भी दिया करो ना,
अल्फ़ाज़ों से कोई पैग़ाम दिया करो ना।"
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वो:
"तेरे लबों की खामोशी में,
हमने कई अरमान पढ़े हैं,
कभी तुम भी दिल की बात,
चुपके से कलाम किया करो ना..."
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मैं:
"हस्ताक्षर, नाम ओ कलाम तेरे किया करते हैं,
होंठों से छूकर, प्रीत का चुंबन दिया करो ना।"
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वो:
"तेरे लफ़्ज़ों की खुशबू से,
हम साँसों को महकाते हैं,
कभी तुम भी मुस्काकर,
दिल पे इत्तेफाक़ किया करो ना।"
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मैं:
"वक़्त की बेड़ियों ने हमें
थाम लिया कुछ इस कदर,
हमसफ़र ना बना तेरा,
रहा तन्हा तन्हा सा सफ़र।"
"तेरे दीद के जाम से,
पीता रहा, पहर दर पहर,
तबस्सुम के साज़ ले गया,
ये तन्हा तन्हा सा सफ़र।"
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वो:
"तन्हा लम्हों की शाख़ों पर,
तेरे इंतज़ार के फूल खिले,
हर कदम पे आवाज़ दी तुझको,
गूँज खामोशियों के ही क्यूँ मिले।"
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मैं:
"थी बेक़रारी की रातें —
इधर भी, उधर भी,
ख्वाबबीन लम्हों में थे —
गुज़रे सुबह-ओ-शाम,
इधर भी, उधर भी।"
"फ़ासलों में मौन ने
किया पहल संवाद,
इधर भी, उधर भी।"
"इल्म-ए-सुकूत में मेरी खामोशियों को सुनना,
गुज़रा वक़्त क्यों खामोश रहा, वो सब सुनना।"
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आख़िरी सरगोशी:
"कुछ हमने बयां किया,
कुछ तुमने सजा लिया,
जो रह गया दरमियां,
उसे हवाओं ने लिखा..."
~वृहद
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