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Monday, April 28, 2025

भटकाव की कहानी

[भूमिका]
कुछ रास्ते ऐसे भी होते हैं —
जहाँ मंज़िलें पास आती नहीं,
और हम... खुद से दूर होते जाते हैं।

[मुख्य रचना]

वक़्त गुजरता गया,
तुम कामयाबियों के शिखर चढ़ते गए,
हम नाकामियों के अतल में गिरते गए।

बेवजह मैं,
तृण-तृण तृष्णा के बियाबान में भटकता रहा,
मैं तुझमें हूँ — इसी भरम में पलता रहा।

ना जाना जो,
थे दुनिया के जुल्मों-सितम कितने अनेक,
एक जंग मैं खुद से ही चुपचाप लड़ता रहा।

[समाप्ति]

थक कर जब रुका,
तो जाना —
तमाम हारों में भी एक अजीब-सी जीत छुपी थी:
"खुद को पहचान लेने की।"

~वृहद 

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