poet shire

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Saturday, April 26, 2025

वक़्त के सफ़्हे पर,

ख़्वाबीन-स्याही में डूबा
रोज़ तुम्हें लिखता रहता हूँ,
बिखरे लफ़्ज़ों में ढलकर
तेरी सूरत गुनता रहता हूँ।

ख़ामोशियों में भी
तेरी आहट सुनता रहता हूँ,
हर साँस में जैसे
तेरे नाम को बुनता रहता हूँ।

तुम आकर पढ़ जाना
वो सब जो मैं सहता रहता हूँ,
जो लफ़्ज़ों में न आ सका
वो अशआर में कहता रहता हूँ।

साक्षी लम्हों की चादर में
तेरा अक्स ही देखता रहता हूँ,
अधूरी छंदों की थरथर में
नीत-संग रुँधता रहता हूँ।

तेरे शहर की गलियों में
हर मोड़ ताका करता रहता हूँ,
तेरी कोई ख़बर न आए
फिर भी तुझसे जुड़ता रहता हूँ।

~वृहद 

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