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Sunday, April 27, 2025

वो जो कहता है – मैं मुजाहिद

 ग़ज़ल

(शीर्षक: "वो जो कहता है – मैं मुजाहिद")
रचयिता: वृहद
मतला:
वो जो हर बात में करता रहा बस मुनासिब,
हक़ की आवाज़ पर बन गया वो मुजाहिद।
1.
एक श्याना, छुपा जमात में, बनता फिरता मुसाहिब,
मजहबी बांग सुनाता, कहता खुद को वो मुजाहिद।
2.
कर्ब की आड़ में बेख़ौफ़ वो करता साज़िश,
लफ़्ज़ सजते थे जिसमें, कहता – "मैं मुजाहिद"।
3.
पहलगाम के गुलों पर जो बरसी थी वो तबाही,
कौन था वो, बता दे, सच में था क्या मुजाहिद?
4.
ज़िक्र करता रहा तलक़ीन का, सदा मुहजब,
दिल में भरके फिरा नफ़रतें, वो मुजाहिद।
5.
सच कहो तो लगे कुफ़्र सा, वो सह न सका,
हक़परस्ती से डरता है अब, कैसा मुजाहिद?
6.
दीन के नाम पे करता जो तिजारत हरदम,
वो न इबादत का हक़दार है, न कोई मुजाहिद।
7.
ढूंढो उसे, ए बेख़बरों, नींद में जो छुपा है,
जागो ज़रा, पहचान लो, वो जो बनता मुजाहिद।
मक़ता:
वृहद कहता है, ज़ुल्म ओ ढोंग में फ़र्क रखो,
हक़ पे जो मर मिटे, वो ही होता है मुजाहिद।

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