(...लेकिन धूल हटानी तुम्हें ही होगी)
इंद्रियाँ अक्सर धोखा देती हैं,
और एहसास भी कभी-कभी फ़रेब बन जाते हैं।
मैं तुम्हारी आँखों से नहीं देखता इस दुनिया को —
मेरी अपनी नज़र है, अपना नज़रिया है।
और यही मेरी खामी नहीं, मेरी ख़ूबी है —
मैं अधूरा हूँ… इसीलिए तो पूरा हूँ।
मैं तुम्हारे लिए बस एक आईना बन सकता हूँ,
जो तुम्हें तुम्हारा ही अक्स दिखा दे —
बिना किसी लाग-लपेट के।
पर आईने का काम दिखाना है,
साफ़ रखना तुम्हारा फ़र्ज़ है।
तो अगर चाहता है कि
मैं वही बनूँ, जो मैं तेरे लिए बना हूँ —
तो इस आईने से धूल हटाते रहना दोस्त…
वरना मैं धुंधला हो जाऊँगा,
और तू — खुद को कभी देख न पाएगा।
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