भूमिका :
कुछ सवाल समय बीत जाने के बाद आते हैं… वो जब पूछती है तो शब्द नहीं, अनुभव जवाब देते हैं। ये कविता उसी एक संवाद पर आधारित है — एक मौन उत्तर, एक शांति भरे शून्य की ओर बहती आत्मस्वीकृति।
उसने पूछा:
"मेरे बिना… बिना बताए चले जाने के बाद,
क्या किया? तू कैसे जी पाया?"
मैंने कहा:
शायद…
जो किया, जैसे जिया—
अब वो सब कोई मायने नहीं रखता।
मैं एक मौन दर्शक बन गया,
धीरे…
निश्चित रूप से…
अराजकता के बीच,
बस यही कर सकता था।
मैंने देखा—
मन की हर तरंग
तन पर उतरती गई।
उन्हें उठते देखा…
फिर मिटते देखा।
वे लहरों की तरह आईं,
और लहरों की तरह चली गईं।
उस नीरवता में,
एक सत्य उभर आया—
ये सब नश्वर था,
एक विचार…
एक क्षणिक अनुभूति।
अगर वो प्रेम होता,
तो स्थायी होता।
वो टिकता…
सदियों तक।
और तब—
न पूरी तरह से चंगा,
न ही पूरी तरह टूटा,
बस…
मैं एक शांति भरे शून्य में डूब गया।
— वृहद
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