(मुक्तछंद | समाज | दर्शन)
सीमाएं सिर्फ़ नक्शों पर नहीं बनतीं,
कई बार हमारी सोच, भाषा, और विश्वास भी
इंसानों को बाँटने लगते हैं...यह कविता उन्हीं "अदृश्य लकीरों" की बात करती है — जो इंसानों के बीच कभी धर्म, कभी देश, कभी विचार के नाम पर खिंच जाती हैं।
अल्ला, भगवान,
हिन्दू-मुस्लिम
कुफ्र-काफ़िर
ये तेरी-ये मेरी —
अस्तित्व विहीन सब
जमात बाँटती — अदृश्य लकीरें।
भारत - पाक
नापाक - जिहादी
सौम्यवादी - उग्रवादी —
एक सिंधु का पानी,
अत्तफ़ाली फितरत में —
क्यूँ देश बाँटती — अदृश्य लकीरें।
घात,
आघात —
ललकार,
प्रतिहार —
शहीद-शहादत
नाम-ए-जंग मे नए —
अंजाम बाँटती -अदृश्य लकीरें।
कुदरत ने पैदा, हमको-तुमको एक किया —
जीने को सब साधन दिया, प्रचुर दिया...
फिर —
आपस में ये मारामारी क्यों?
तुम सदृश,
मैं सदृश —
बाँटती क्यूँ? तुम्हें-मुझसे
—अदृश्य लकीरें।
~वृहद
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