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Saturday, May 31, 2025

🚭 “कायेकू यार?” – एक ग़ज़ल, एक तंज़, एक चेतावनी

(विशेष प्रस्तुति: तंबाकू निषेध दिवस – 31 मई)

आज विश्व तंबाकू निषेध दिवस है।
लेकिन क्या सचमुच हम तंबाकू से ‘निषेध’ कर पाए हैं? या फिर बस नाम की मुहिमों में हिस्सा लेकर, फिर उसी गुमटी की ओर मुड़ जाते हैं?

ग़ज़ल एक समय में इश्क़ की ज़ुबान थी, आज इसे हमने समाज के ज़हर को आइना बना दिया है।
गुटका, सिगरेट, तंबाकू – जो कभी बुराई थी, अब आदत बन चुकी है।
लेकिन इस आदत की कीमत है — साँसें, ज़ुबां, होठ, और फिर ज़िंदगी।

आज के दिन, ये ग़ज़ल उनके लिए है — जो अब भी कहते हैं: "एक कश और..."

Thursday, May 29, 2025

पेड़ ध्यान में मग्न हैं

बसंती हवा ने
छेड़ दिया पेड़ों का मौन,
एक धीमी सी सारगोशी की —
कि कहीं कुछ कहें ये छायादार ऋषि,
मगर पेड़ ध्यान में लुप्त हैं,
कुछ बोलेंगे नहीं।

लू के थपेड़ों ने
जर्द कर दिए पलाश के पत्ते,
वाडव-अनल-सी धधकती कोंपलों ने
जैसे एक अग्नि-संदेशा दिया —
"सुनो, अब तो सुनो!"
मगर पेड़ ध्यान मग्न हैं,
कुछ बोलेंगे नहीं।

फिर चलीं पुरवइया की नम बयारें,
थपथपाईं सूनी डालियाँ,
हरियाते पत्तों और नन्हीं बूटियों ने भी
मौसमों से गुहार लगाई:
"अब की बार कुछ कह दो!"
मगर पेड़ समाधिस्थ हैं,
कुछ बोलेंगे नहीं।

इस शांत, मृदुल, तपस्वी छवि को
देखकर भी न पिघला,मानव का मदस्तर मन।
कतले आम कर डाला मुनियों का, पर
पेड़ मौन हैं, ये.....कुछ बोलेंगे नहीं....

Wednesday, May 28, 2025

🌹 इब्तिदा-ए-नज़्म

 (ग़ज़ल – वृहदाभार)

मतला:
उनकी यादों में रात की तन्हाई जब शामिल होती है,
उसी सुकूत-ए-लम्हे में ग़ज़ल मुझमें नाज़िल होती है।

शेर 1:
ग़म-ए-ज़िंदगी की तिर्गियों में होती है इक गुफ़्तगू,
फिर ग़ज़ल की शक्ल में यार-ए-दिल हासिल होती है।

शेर 2:
जर्द-ए-शब में जो इब्तिदा-ए-नज़्म सी थी सिहरन,
अब अशआर बनकर मेरी क़लम में शामिल होती है।

शेर 3:
उनके दर्पण-ए-सुख़न में उभरा इक जाना सा चेहरा,
अब दिल की वीरानियों में शामिल इक महफ़िल होती है।

मक़ता:
वृहदाभार, उन नक़्श-ए-नाज़नीं का वो मोजज़ा जो,
मतला से मक़ता तक सफ़र-ए-ग़ज़ल में नाज़िल होती है।

~वृहद

Tuesday, May 27, 2025

🌹 ग़ज़ल: "अश्क़ के पैमाने में"

उम्रें लगेंगी अब भी, असर-ए-हिज्र को जाने में,
तौला गया है रंज-ओ-दर्द अश्क़ के पैमाने में।

तेरी भीगी सी कश्ती इक राज़ करती है बयां,
तू देख, डूबा क्या-क्या है मेरे ग़म के ख़ज़ाने में।

इक माशूक़ थी वो भी, गुज़रे हुए फ़साने में,
इरादा था, सो छोड़ दिया कत्ल के उस खाने में।

ग़ाफ़िल रहा मैं हर झूठे प्यार के अफ़साने में,
जो छोड़ गया मुझको तन्हा, अश्कों के वीराने में।

नाज़िल हुए जब वो मेरी रूह की वृहदायत में,
ख़ुदा भी काफ़िर ठहरा उनके लिखे पैमाने में।


Sunday, May 25, 2025

विदाई के गीत।

तुम्हें हक़ है, तुम आगे बढ़ जाओ प्रिये,
मैंने तो ज़माने की बदहाली ओढ़ रखी है।
तुम कहाँ इस फटे कम्बल में सुख पाओगी,
तुम्हारी आकांक्षाएँ — नरम तकियों सी मुलायम हैं।
हमने तो एक आख़िरी सपना देखने का
हक़ भी खो दिया।

जब तक रहीं, राहत सी रहीं तुम,
नाउम्मीदी में आशा बनकर खिलीं तुम।
संघर्ष की हर मोड़ पर मुस्कुराती दिखीं तुम,
इन मुस्कानों में दुख छुपाकर —
एक शम्मा, उम्मीद की जला गई थीं तुम।

है तुम्हें अलविदा, प्रिये!
फिर किसी आपदा में मिलेंगे,
कभी खैरियत पूछने भर ही सही—
थोड़ी-सी गुफ़्तगू तो हो ही जाएगी।

कल की ही तो बात थी.......

जब ये नभ में बिखरती सोने सी किरणें,
फिर नए उजाले लाने को ढल रही थीं,
अपनी भी साँसें हौले-हौले
इस समाँ में घुल सी रही थीं।

यादों की नदियों तीरे बैठे थे
हम-तुम, और
वो आसमान पिघलते हुए नीलम हो रहा था।
एक ख़ामोशी सी थी, पर बयारें —
बयारें हल्की ठंड लिए,
तन की गर्म आहें लिए उड़ता जा रहा था।

ये परिंदे चहकते थे दिन भर आसमान में,
अब फेरते न थे मुख उस मंज़र पर
जो था तो बहुत सुंदर, पर आख़िरी भी।
वो आख़िरी मुलाक़ात थी,
या शायद, ये कल की ही तो बात थी।


वो आख़िरी मुलाक़ात — यादों की शाम में पिघलता आसमान

वो आख़िरी मुलाक़ात — यादों की शाम में पिघलता आसमान

कुछ लम्हे ऐसे होते हैं जो गुज़र तो जाते हैं, पर उनकी महक, उनकी ख़ामोशी, और उनसे जुड़ी हर एक झलक हमारी रूह में बस जाती है। यह कविता एक ऐसी ही शाम की स्मृति है — जहाँ बिछड़ने से पहले की नमी भी थी और प्यार की आख़िरी धूप भी।

जब ये नभ में बिखरती सोने सी किरणें,
फिर नए उजाले लाने को ढल रही थीं,
अपनी भी साँसें हौले-हौले
इस समाँ में घुल सी रही थीं।

यादों की नदियों तीरे बैठे थे
हम-तुम, और
वो आसमान पिघलते हुए नीलम हो रहा था।
एक ख़ामोशी सी थी, पर बयारें —
बयारें हल्की ठंड लिए,
तन की गर्म आहें लिए उड़ता जा रहा था।

ये परिंदे चहकते थे दिन भर आसमान में,
अब फेरते न थे मुख उस मंज़र पर
जो था तो बहुत सुंदर, पर आख़िरी भी।
वो आख़िरी मुलाक़ात थी,
या शायद, ये कल की ही तो बात थी।

कभी-कभी ज़िंदगी हमें एक ऐसा पल देती है, जो इतना सजीव होता है कि वो बीतने के बाद भी भीतर जिंदा रहता है। यह कविता उन अधूरे मगर खूबसूरत लम्हों का दस्तावेज़ है — जो हमारे पास न होते हुए भी हमारे साथ रहते हैं।

आँसू आँखों में रह गया,

 आँसू आँखों में रह गया,
और तेरा कुछ न कहना भी
बहुत कुछ कह गया। 

इत्मिनानियों की सेज़ पर, तुम्हारे सपने फले-फूले,
दुआओं का बस इतना ही मुखड़ा रह गया।
तुम बिन, एक सफ़र इस जन्म में फिर अधूरा रह गया —
इन चारदीवारियों में क़ैद कई जन्मों की जुगलबंदी,
इस जन्म में भी एकतरफा रह गया।
और तेरा कुछ न कहना भी,
बहुत कुछ कह गया।

आज फिर सूरज निकला है, घनी अंधकार की चादर से,
आज फिर रात सजी है, तारों से जड़ी चादर में।
ये चाँद, ये सूरज — आज फिर
उगते-ढलते, हर दिन, हर साल, हर सदी की तरह,
फिर सफ़र में तन्हा गुज़र गया।
और तेरा कुछ न कहना भी
बहुत कुछ कह गया।

ये ख़ामोशी के जेवर — सूत्र-सा जीवन बन,
ग्रीवा में चमकता हुआ रह गया।
इन आंखों का आँसू,
पलकों में छुपा रह गया।
तेरा कुछ न कहना भी,
बहुत कुछ कह गया।

साँसों की गर्मी में, आहों की नर्मी में,
एक एहसास-ए-ख़ास
फिर सेहमा-सा रह गया।

~vrihad




Friday, May 23, 2025

लफ़्ज़ जो गिरा था – एक तन्हा आवाज़ की दास्तान

कभी-कभी ज़िन्दगी के कोलाहल में एक लफ़्ज़ गिर जाता है।
पर अगर किसी ने उस लफ़्ज़ को उठाया,
तो वो तन्हा नहीं रहता… वो कहानी बन जाता है।
कोई देखता नहीं, कोई पूछता नहीं —

यह कविता, उसी गिरे हुए लफ़्ज़ की कहानी है।


लफ़्ज़ जो गिरा था

कहीं कभी कोई लफ़्ज़ गिरा मिला मुझे,
मैंने उसे उठा कर किसी नग़मे में पिरो लिया।

वो गया किसी महफ़िल में, बेज़ुबाँ सा,
जहाँ कराहते जज़्बातों की ज़ुबां बन गया।

मैंने देखा वहाँ उसके जैसे और भी थे,
गिर पड़े, कुचले हुए — मगर सब एक से बढ़कर एक।

वो लफ़्ज़... हाँ वही — जो दर्द में भी गाता था,
महफ़िल की रौनक बनता, फिर भुला दिया जाता था।

उसके स्वर में सिसकियाँ थीं, उसकी चाल में थकन,
और आँखों में बस एक तमन्ना — कि कोई समझे।

पर महफ़िलों को शोर चाहिए, असर नहीं,
वो लफ़्ज़ ज्योंही सुना, ताली बजी — फिर फेंक दिया गया।

वो लफ़्ज़ आज भी किसी कोने में सिसकता, तड़पता रहता है,
और महफ़िलों के बाहर — देखने, पूछने वाला कोई है ही नहीं।


एंड नोट:

हर बार जब तुम कोई कविता पढ़ो या सुनो —
तो ज़रा रुकना, महसूस करना।
क्योंकि जो लफ़्ज़ तुमने बस यूँही सुन लिया,
शायद वो किसी के दिल का आख़िरी हिस्सा था।

✍️ लेखक: वृहद

Thursday, May 22, 2025

बिछड़ा यार, ख़ुदा-ख़ुदा सा रहता है — वृहत

 कभी मोहब्बत की तासीर वक्त से बड़ी होती है।
कभी कोई जुदाई, ख़ुदा की तरह—नज़र नहीं आती, पर हर जगह मौजूद रहती है।
यह ग़ज़ल, एक ऐसे ही अक्स की परछाईं है—जो लहू में सिला रहता है, ज़ख़्म में हरा-भरा।

Wednesday, May 21, 2025

इंकार दे दो – एक ग़ज़ल इश्क़ के ज़हर में डूबी

भूमिका:
कभी-कभी मोहब्बत, मुश्क की तरह नहीं महकती… बस चुभती है — ज़ख़्म बनकर।
ये ग़ज़ल, उस दीवाने की पुकार है जिसने प्रेम से जवाब नहीं, मगर इंकार माँगा।

Friday, May 16, 2025

"तुम्हें देखा नहीं कब से..."

बीतने का नाम नहीं लेता — एक वो एहसास

कभी-कभी किसी की यादें सिर्फ़ स्मृतियाँ नहीं होतीं —
वो मौसमों में उतर आती हैं,
बादलों में घुल जाती हैं,

बीतने का नाम नहीं लेता — एक वो एहसास

कभी-कभी किसी की यादें सिर्फ़ स्मृतियाँ नहीं होतीं —
वो मौसमों में उतर आती हैं,
बादलों में घुल जाती हैं,
छाँव में ठहरती हैं,
और धूप में चुभने लगती हैं।

ऐसे ही एक अनुभव की कविता है ये।
जिसमें एक ‘तुम’ है —
जो गया भी नहीं,
और बीता भी नहीं।


तुम्हें देखा नहीं कब से...
फिर भी ये लगता है —
तुम्ही तुम हो मेरे इस दिल में।

तुम्हें न देख कर भी,
तुम्हें ही देखना —
बस एक आदत-सी हो गई है।

ये मेघ-मल्हारों-सी
उमड़ती-घुमड़ती यादें —
बादलों के अंदाज़ में,
थिरकते हुए देखा किया है मौसमों में तुम्हें।

एक धरा थी, मुझे थामे —
और एक तुम आए:
कभी धूप में झुलसाते,
दो बूँद नीरा को तरसाते;
कभी छाँव में अविरल विराम,
कभी अंबिया की मीठी आराम।

तुम —
राहत और आहत —
सबमें समाए रहे।

तुम्हें देखे ज़माना बीत गया,
पर, जाने वो कैसा अतीत था —
जो मुझसे बीतता नहीं,
जो मुझमें बितता नहीं...

Monday, May 5, 2025

मैं तुम्हारा आईना हूँ

(...लेकिन धूल हटानी तुम्हें ही होगी)

इंद्रियाँ अक्सर धोखा देती हैं,
और एहसास भी कभी-कभी फ़रेब बन जाते हैं।
मैं तुम्हारी आँखों से नहीं देखता इस दुनिया को —
मेरी अपनी नज़र है, अपना नज़रिया है।

और यही मेरी खामी नहीं, मेरी ख़ूबी है —
मैं अधूरा हूँ… इसीलिए तो पूरा हूँ।

मैं तुम्हारे लिए बस एक आईना बन सकता हूँ,
जो तुम्हें तुम्हारा ही अक्स दिखा दे —
बिना किसी लाग-लपेट के।

पर आईने का काम दिखाना है,
साफ़ रखना तुम्हारा फ़र्ज़ है।

तो अगर चाहता है कि
मैं वही बनूँ, जो मैं तेरे लिए बना हूँ —
तो इस आईने से धूल हटाते रहना दोस्त…
वरना मैं धुंधला हो जाऊँगा,
और तू — खुद को कभी देख न पाएगा।

शीर्षक: "उसके बाद, मैं कैसे जिया?" — एक संवाद जो भीतर तक उतर गया

भूमिका :

कुछ सवाल समय बीत जाने के बाद आते हैं… वो जब पूछती है तो शब्द नहीं, अनुभव जवाब देते हैं। ये कविता उसी एक संवाद पर आधारित है — एक मौन उत्तर, एक शांति भरे शून्य की ओर बहती आत्मस्वीकृति।


उसने पूछा:

"मेरे बिना… बिना बताए चले जाने के बाद,

क्या किया? तू कैसे जी पाया?"

मैंने कहा:

शायद…

जो किया, जैसे जिया—

अब वो सब कोई मायने नहीं रखता।

मैं एक मौन दर्शक बन गया,

धीरे…

निश्चित रूप से…

अराजकता के बीच,

बस यही कर सकता था।

मैंने देखा—

मन की हर तरंग

तन पर उतरती गई।

उन्हें उठते देखा…

फिर मिटते देखा।

वे लहरों की तरह आईं,

और लहरों की तरह चली गईं।

उस नीरवता में,

एक सत्य उभर आया—

ये सब नश्वर था,

एक विचार…

एक क्षणिक अनुभूति।

अगर वो प्रेम होता,

तो स्थायी होता।

वो टिकता…

सदियों तक।

और तब—

न पूरी तरह से चंगा,

न ही पूरी तरह टूटा,

बस…

मैं एक शांति भरे शून्य में डूब गया।

— वृहद

Monday, April 28, 2025

पहल-ए-तक़रीर।

(“बैरन होती सरगोशियां के दरमियाँ,
एक पहल-ए-तक़रीर।
– जहाँ मौन की सीमाओं को लांघते हैं दो दिलों के अल्फ़ाज़।)

मैं:
"ऐ सुनो न,
मैं ही सब कहता रहूंगा?
तुम भी कुछ कहो न..."

---
वो:
"लब थमे हों अगर तो,
नज़रों से कुछ तो कहो न,
खामोशियाँ भी सुनती हैं,
बस दिल से सुनाया करो न।"

---
मैं:
"आँखों के प्यालों में
तुझको आँसुओं सा भरा करते हैं,
तेरे दामन से जो निकले
उसको सलाम-ए-हर्फ़ दिया करते हैं।"

"सलाम-ए-हर्फ़ तुम भी दिया करो ना,
अल्फ़ाज़ों से कोई पैग़ाम दिया करो ना।"

---
वो:
"तेरे लबों की खामोशी में,
हमने कई अरमान पढ़े हैं,
कभी तुम भी दिल की बात,
चुपके से कलाम किया करो ना..."

---
मैं:
"हस्ताक्षर, नाम ओ कलाम तेरे किया करते हैं,
होंठों से छूकर, प्रीत का चुंबन दिया करो ना।"

---
वो:
"तेरे लफ़्ज़ों की खुशबू से,
हम साँसों को महकाते हैं,
कभी तुम भी मुस्काकर,
दिल पे इत्तेफाक़ किया करो ना।"

---
मैं:
"वक़्त की बेड़ियों ने हमें
थाम लिया कुछ इस कदर,
हमसफ़र ना बना तेरा,
रहा तन्हा तन्हा सा सफ़र।"
"तेरे दीद के जाम से,
पीता रहा, पहर दर पहर,
तबस्सुम के साज़ ले गया,
ये तन्हा तन्हा सा सफ़र।"

---
वो:
"तन्हा लम्हों की शाख़ों पर,
तेरे इंतज़ार के फूल खिले,
हर कदम पे आवाज़ दी तुझको,
गूँज खामोशियों के ही क्यूँ मिले।"

---
मैं:
"थी बेक़रारी की रातें —
इधर भी, उधर भी,

ख्वाबबीन लम्हों में थे —
गुज़रे सुबह-ओ-शाम,
इधर भी, उधर भी।"

"फ़ासलों में मौन ने
किया पहल संवाद,
इधर भी, उधर भी।"

"इल्म-ए-सुकूत में मेरी खामोशियों को सुनना,
गुज़रा वक़्त क्यों खामोश रहा, वो सब सुनना।"

---

आख़िरी सरगोशी:
"कुछ हमने बयां किया,
कुछ तुमने सजा लिया,
जो रह गया दरमियां,
उसे हवाओं ने लिखा..."

~वृहद



भटकाव की कहानी

[भूमिका]
कुछ रास्ते ऐसे भी होते हैं —
जहाँ मंज़िलें पास आती नहीं,
और हम... खुद से दूर होते जाते हैं।

[मुख्य रचना]

वक़्त गुजरता गया,
तुम कामयाबियों के शिखर चढ़ते गए,
हम नाकामियों के अतल में गिरते गए।

बेवजह मैं,
तृण-तृण तृष्णा के बियाबान में भटकता रहा,
मैं तुझमें हूँ — इसी भरम में पलता रहा।

ना जाना जो,
थे दुनिया के जुल्मों-सितम कितने अनेक,
एक जंग मैं खुद से ही चुपचाप लड़ता रहा।

[समाप्ति]

थक कर जब रुका,
तो जाना —
तमाम हारों में भी एक अजीब-सी जीत छुपी थी:
"खुद को पहचान लेने की।"

~वृहद 

Sunday, April 27, 2025

वो जो कहता है – मैं मुजाहिद

 ग़ज़ल

(शीर्षक: "वो जो कहता है – मैं मुजाहिद")
रचयिता: वृहद
मतला:
वो जो हर बात में करता रहा बस मुनासिब,
हक़ की आवाज़ पर बन गया वो मुजाहिद।
1.
एक श्याना, छुपा जमात में, बनता फिरता मुसाहिब,
मजहबी बांग सुनाता, कहता खुद को वो मुजाहिद।
2.
कर्ब की आड़ में बेख़ौफ़ वो करता साज़िश,
लफ़्ज़ सजते थे जिसमें, कहता – "मैं मुजाहिद"।
3.
पहलगाम के गुलों पर जो बरसी थी वो तबाही,
कौन था वो, बता दे, सच में था क्या मुजाहिद?
4.
ज़िक्र करता रहा तलक़ीन का, सदा मुहजब,
दिल में भरके फिरा नफ़रतें, वो मुजाहिद।
5.
सच कहो तो लगे कुफ़्र सा, वो सह न सका,
हक़परस्ती से डरता है अब, कैसा मुजाहिद?
6.
दीन के नाम पे करता जो तिजारत हरदम,
वो न इबादत का हक़दार है, न कोई मुजाहिद।
7.
ढूंढो उसे, ए बेख़बरों, नींद में जो छुपा है,
जागो ज़रा, पहचान लो, वो जो बनता मुजाहिद।
मक़ता:
वृहद कहता है, ज़ुल्म ओ ढोंग में फ़र्क रखो,
हक़ पे जो मर मिटे, वो ही होता है मुजाहिद।

Saturday, April 26, 2025

क्षणिक प्रेम, चिरंतन महक

 शीर्षक:

क्षणिक प्रेम, चिरंतन महक

लेखक: वृहद

---

प्रस्तावना:

कुछ प्रेम जीवन में बस एक ऋतु की तरह आते हैं — क्षणिक, सजीव, पर सीमित।
वे ठहरते नहीं, मगर अपनी उपस्थिति से जीवन को सुगंधित कर जाते हैं।
यह कविता एक ऐसे ही प्रेम की स्मृति है —
जो क्षण भर को था, पर उसकी महक चिरंतन बनकर आत्मा में बस गई।
---

कविता:

तुम कली
मैं भँवरा
तुम्हें फूल बनाकर
तुझे महकता छोड़ आया
तेरे प्रेम की बगिया में
मैं सुबह की ओस सा ठहर न सका

तेरे रंग में रंगा, फिर भी
तेरी शाखों के संग न रह सका
तू सूरज की पहली किरण थी
मैं पलभर का साया
तू आज भी महक रही है वहीं
जहाँ मैं लौटकर न आया



---

समापन विचार:

प्रेम की सुंदरता उसकी स्थायीत्व में नहीं, बल्कि उसकी उस महक में होती है जो बिछड़ने के बाद भी मन को भीतर तक भर देती है।
क्या आपने भी कभी ऐसा कोई क्षणिक प्रेम जिया है जो आज भी आपकी आत्मा में गूंजता है?

अदृश्य लकीरें।

(मुक्तछंद | समाज | दर्शन)

सीमाएं सिर्फ़ नक्शों पर नहीं बनतीं,
कई बार हमारी सोच, भाषा, और विश्वास भी
इंसानों को बाँटने लगते हैं...

यह कविता उन्हीं "अदृश्य लकीरों" की बात करती है — जो इंसानों के बीच कभी धर्म, कभी देश, कभी विचार के नाम पर खिंच जाती हैं।


अल्ला, भगवान,
हिन्दू-मुस्लिम
कुफ्र-काफ़िर
ये तेरी-ये मेरी —
अस्तित्व विहीन सब
जमात बाँटती — अदृश्य लकीरें।

भारत - पाक
नापाक - जिहादी
सौम्यवादी - उग्रवादी —
एक सिंधु का पानी,
अत्तफ़ाली फितरत में —
क्यूँ देश बाँटती — अदृश्य लकीरें।

घात,
आघात —
ललकार,
प्रतिहार —
शहीद-शहादत
नाम-ए-जंग मे नए —
अंजाम बाँटती -अदृश्य लकीरें।

कुदरत ने पैदा, हमको-तुमको एक किया —
जीने को सब साधन दिया, प्रचुर दिया...
फिर —
आपस में ये मारामारी क्यों?

तुम सदृश,
मैं सदृश —
बाँटती क्यूँ? तुम्हें-मुझसे
—अदृश्य लकीरें।

~वृहद

वक़्त के सफ़्हे पर,

ख़्वाबीन-स्याही में डूबा
रोज़ तुम्हें लिखता रहता हूँ,
बिखरे लफ़्ज़ों में ढलकर
तेरी सूरत गुनता रहता हूँ।

ख़ामोशियों में भी
तेरी आहट सुनता रहता हूँ,
हर साँस में जैसे
तेरे नाम को बुनता रहता हूँ।

तुम आकर पढ़ जाना
वो सब जो मैं सहता रहता हूँ,
जो लफ़्ज़ों में न आ सका
वो अशआर में कहता रहता हूँ।

साक्षी लम्हों की चादर में
तेरा अक्स ही देखता रहता हूँ,
अधूरी छंदों की थरथर में
नीत-संग रुँधता रहता हूँ।

तेरे शहर की गलियों में
हर मोड़ ताका करता रहता हूँ,
तेरी कोई ख़बर न आए
फिर भी तुझसे जुड़ता रहता हूँ।

~वृहद 

Friday, April 25, 2025

मरहूम मुहब्बत हमसे दफनाया न गया......

तन्हा-ए-उम्र भी, हमसे तुमको छुपाया न गया,
सादगी में भी हमें, तुमसे दिल लगाना न गया।

ये कैसा टूटा इक लम्हा, रुख़्सत-ए-इश्क़ पर,
बेज़ार मौसमी तल्ख़ियाँ, हमसे गुज़ारा न गया।

आगोश-ए-हयात में, शब-ए-सोहबत थी जो गुज़री,
लम्स-ए-ज़िगर ख़्वाबों से, हमसे उतारा न गया।

तेरी रूठने की अदा पर, मेरे मनाने का फ़साना,
जलती रातों की बे-नींद आहों में, पुकारा न गया।

दिल-जला बहुत कि, करवा-चौथ का व्रत मेरे लिए,
मोहब्बत लुटाई ग़ैरों पे, हमसे स्वीकारा न गया।

तेरी चूड़ियों की कलीरें, कसक दिल में रह गईं,
'वृहद' को तेरे सर टीका, कभी बनाया न गया।

~वृहद 



मरहूम मुहब्बत हमसे दफनाया न गया......
 

तन्हा-ए-उम्र भी हमसे, तुझको छुपाया न गया,
सादगी में भी तेरा हुस्न-ओ-जलवा भुलाया न गया।

आँखों से पैहम तवाफ़-ए-कूचा-ए-यार न गया,
हर शय पे मात खा के भी जीना, हमारा न गया।

जो लम्हा टूटा वहीं, रुख़्सत-ए-इश्क़ के वक़्त,
मौसमी तल्ख़ियों सा वो ज़हर, उतारा न गया।

आगोश-ए-हयात में, शब-ए-सोहबत जो ठहर गई,
लम्स-ए-ज़िगर था ख़ूँ-लम्हा — हमसे निकाला न गया।

तेरी रूठने की अदा पर, मेरे मनाने का फ़साना,
जलती रातों की बे-नींद आहों से पुकारा न गया।

दिल जला बहुत कि करवा-चौथ का व्रत था मेरे लिए,
और मोहब्बत जो ग़ैरों पे लुटी, हमसे स्वीकारा न गया।

तेरी चूड़ियों की कलीरें, कसक बनके रह गईं,
‘वृहद’ को तेरे सर का टीका कभी सजाया न गया।

~vrihad 

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