poet shire

poetry blog.

Monday, March 17, 2025

अदा का श्रृंगार।

 दो रूहों की पहचान बना बैठे हैं,
हर दिन को इतवार बना बैठे हैं।
जैसे मौसमों की हो साज़िश कोई,
इस प्रेम उमंग में वो
हर छन को त्योहार बना बैठे हैं।"

"उनकी राग-गाथा के हर भाव,
सब दर किनार हुए पड़े हैं।
अपने प्रेम-प्रसंग की कल्पना को,
नवीन अभिव्यक्ति की पहचान बना बैठे हैं।
शेर-ओ-शायरी अपनी क़लम की निब से,
जीवन के कोरे काग़ज़ को सजा बैठे हैं।"

"जो कह भी दिया इज़हार-ए-इश्क़ कभी,
तीर-ए-जिगर के हैं जज़्बात सभी।
प्रेम की भाषा को नई,
अदा का श्रृंगार बना बैठे हैं,
अपनी रचना का हमें,
आधार बना बैठे हैं।"

प्रिय, तुम बिन क्यों लगे जैसे...

 प्रिय, तुम बिन क्यों लगे जैसे...

चला जाऊं बस अनजानी राहों पर,
जब तक थकें पांव, जब तक रोके न कोई,
न तपती धूप, न सरोवर का पानी,
न हरियाली की गोद, न अमराई की छाँह।
बस चलता जाऊं, तुम बिन कहीं...

हर दिशा बैरन, हर क्षण उदास,
हर्ष-उन्माद के संग खड़ा यह विरह,
सूरज की पहली किरण से, चाँद की अंतिम चांदनी तक,
जलता जाऊं, बुझता नहीं, तुम बिन कहीं...

हीय में दबी भावनाएँ जब उभरती हैं,
हर शब्द में बस तुम्हीं को गढ़ता हूँ,
इतिहास के पन्नों पर लिख दूँ मैं,
एक नाम हमारा,
और एक नाम वियोग के उस क्षण का भी।

यह कलम न रुके, ये पाँव न थमें,
बस एक यही तपस्या शेष रहे,
प्रेम के अधूरे स्वरूप को संवारने की,
और इस विरह की अग्नि में,
तुम बिन जलता चला जाऊं...

तेरा खिलवाड़

 उनके खेल में दो दिल होते हैं,

एक उनका, एक मेरा।

नियम खेल के सारे उनके,
चित्त भी उनका, पट भी उनका।
जीत उनकी और हार बस मेरी,
खुशियाँ उनकी, बेबसी मेरी।

बचपना भी उनका,
परिपक्वता भी उन्हीं की।
हम तो बस बंदर से नाचते रहते हैं,
रात की दो नींद और अगले दिन
फिर एक नए खेल के लिए।

वस्ल-ए-यार की आरज़ू

 इश्क़-ए-दस्तूर की बड़ी-बड़ी बातें हैं,
अंजाम-ए-इश्क़ पे बड़ी इबादतें हैं।
वस्ल-ए-यार की आरज़ू,
फिर क्यों नहीं निभाते हैं?
हमसे मिलने वो, क्यों नहीं आते हैं?

तुम बिन कैसे जिया मै ।

एहतियात-ए-इश्क़ के एक वादे पर तुम बिन,
जाने कैसे जिया हूँ मैं।
जुदाई की हर वेदना में तुमको ही याद किया,
और तुम-सा जिया हूँ मैं। 

मगरिब के धूल भरे मैदानों में

 मगरिब के धूल भरे मैदानों में,
तुम मृगतृष्णा-सी दिखती थी
दिशाओं में तुम्हें तलाशते उस पथिक को।

जब मृगतृष्णा दर्पण-सी टूट जाती,
पथिक का दिल उससे कहता:
"तू दर्पण में नहीं है,
तू तो इस दिल में बसती है।

हौसलों की दुहाई

 ख़ुद के हौसलों की हम दुहाई दें,
या फिर इसे रूसवाई करें?
दिल में जो आग सुलग रही,
उसे कब तक परछाईं करें?

जो अहसास दिल में बसा रहा,
वो दूर जाने न दे सका,
और जुदाई ऐसी रही,
कि पास रहने भी न दे सका।

उन दौर में भी, एक आभा थी तुम,
जो मुख पे खिलती उषा भी तुम।
हर छाँव में जो संग रही,
वो प्यारी सी आशा भी तुम।

एहसासों में बाँधकर हर साँस की डोर,
दिल की हर धड़कन से गुज़रते रहे।
हर लम्हे में यादें बसी हैं तुम्हारी,
शायद एक जीवन भी बसाया हमने—
तुमने, मैंने मिलकर...

quest in her eyes

 Mane runs down the neck,
A lavished herd of sheep, downhill.
She looks at the sea,
With a quest in her eyes—
Who is wild, you or me?

दूजे से रह गए

 

प्यार का क़स्बा सुना था मेरे लिए,
इश्तेहार कोई बहुरूपिया दे गया।

इंतज़ार की बेताबियाँ जब शब्द बनीं,
शब्द उनकी महफ़िलों के चर्चे बन गए।

कलम और क़लमे के हुनर के दीदार में,
कमबख़्त एक हम ही दूजे से रह गए।

अज़ीज़ लतीफ़े

 
जनाब के लतीफ़े भी बड़े अज़ीज़ हैं,
यादों के तड़के पे मुखड़े लज़ीज़ हैं।

तानों की तान में छुपा लेते हैं
अरमानों के फ़रमान,
जगह मिलने की बता देते हैं—
गली नामी चाय दुकान।

मॉर्निंग अलार्म बनकर।




 हर सुबह आती है सदा उस ओर से पैग़ाम बनकर,
सुब्ह की नई किरण सी, एक नई सौग़ात बनकर।
चली आ, प्यारी, तू जगा देती है मुझे,
कभी ख़्वाबों में, कभी मॉर्निंग अलार्म बनकर।

तबस्सुम में तरन्नुम









 तबस्सुम में तरन्नुम के तराने घोलकर,
एक इशारा किया जनाब ने।
आफ़ताब से आबाद हो गई है,
रौनक़े-बहार की।

मौसम की पहल

 गुमसुम गुमसुम यूँ हुई है कुछ मौसम की पहल,
जैसे कोई मल्हार गा रहे हैं विहंग, कर रहे हों अभिनंदन।
ग्रीष्म की बेचैनी जैसा इंतज़ार हर लम्हा हो गया है।

आने वाले मेहमान के स्वागत को
ये बयारें भी जैसे बहते-बहते एक संदेश दे रही हैं।
आएंगे जनाब तो मौसमों की राहत-सी कुछ बरस पड़ेंगे,
दिल में सुलगते जो अरमान हैं, वो भी सिमट जाएंगे।

गाँव के बाग में फ़रे बेल

गाँव के बाग में फ़रे बेल
और चापाकल का मीठा, ठंडा पानी,
जब मिलकर शरबत बनते हैं न,
तब अमृत का स्वाद भी
कुछ फीका सा हो जाता है।

ज़िन्दगी में जीते-जी कफ़न ओढ़ना ज़रूरी होता है

 ज़िन्दगी में जीते-जी कफ़न ओढ़ना ज़रूरी होता है,
कुछ पुरानी यादों को दफ़न करना ज़रूरी होता है।
कुछ अल्फ़ाज़, कुछ गुफ्तगू बाकी रह गई तो क्या हुआ,
कुछ जज़्बात ऐसे भी हैं, जिनके लिए
बस जीते रहना भी ज़रूरी होता है।

कुछ कशमकश, खामोशियों के रुख़ पे रुख़सार हैं,
किसी मैख़ाने के खाली प्याले,
कुछ नम आंखों की ख़ामोश पुकार हैं।
सब्र, चाहे जितनी तकलीफ़ दे,
कभी-कभी उम्र भर का सब्र भी ज़रूरी होता है।

जो जुदा हो कर भी जिंदा है अहसासों में कहीं,
उसकी लंबी उम्र के लिए,
उससे जुदा-जुदा रहना भी ज़रूरी होता है।

— एक कहानी जो ख़ामोशियों में भी गूंजती है।

 






चाहत-ए-वस्ल की मुखबिरी करे अब कौन,
ऐ जश्न-ए-दिल की मलिका,
मेरी फ़रमाइशों और शोख़ियों को,
थोड़ी हवा तो दे...

अधर, उर की गवाही

 अधर, उर की गवाही न दे सके,
तो कलम चल पड़ी,
फसाने में चुपके से लिख बैठे वो
हाल-ए-दिल अपना।

अंदाज़-ए-बयाँ तो देखिए,
कि इनमें—
है रागिनी की शांति,
और गौरैयों की चहक भी।

दिल है वहीं, दिल था जहाँ

दुर्गम नहीं तो सृजन कहाँ,
दिल है वहीं, दिल था जहाँ।
वो रात सी थी खामोशियाँ,
दिन भी थे कुछ गिने-चुने।

भर आगोश में या हो जुदा,
दिल है वहीं, दिल था जहाँ।
ये है शमा, जहाँ दिल था थमा,
जो कल था जहाँ, है वो अब भी वहाँ।

न वस्ल हुई, न जुदा रहे,
न ख़्वाब सजे, न ख़्वाब बने।
है वो दिल कहाँ, जो था यहाँ,
या दिल है वहीं, दिल था जहाँ।

अम्बर फुलकरियों से फिर है सजा,
मेघ उमड़ते, बरसते रहे सदा।
है दिल वहीं, दिल था जहाँ,
या दिल है वहीं, दिल था जहाँ।

आ थाम ले, आ थाम ले,
या दे मुबारकाँ जो है सजी।
तेरी खुशियाँ जहाँ,
मैं हूँ वहीं, तेरी खुशियाँ जहाँ।

है ये जहाँ, वो भी जहाँ,
आ देख ले, मैं हूँ कहाँ।
तेरी खुशियाँ जहाँ,
है ये दिल मेरा वहाँ।

Sunday, March 16, 2025

यादों की तहज़ीब

भूलने की तहज़ीब अभी तक नहीं सीखी,
न यादों को संजोने का तजुर्बा है।
चाहतों की सिलवटें अब उभरने लगी हैं,
शायद…
मगर ये चलती साँसें, ये धड़कते दिल,
यादें नहीं बना करते।

यादें तो तब मुकम्मल होंगी,
जब ये साँसें थम जाएँगी,
जब धड़कनों की आख़िरी दस्तक होगी, मेरे दोस्त।

तेरी याद बेहिसाब आई।

 ज़ुल्म जितना बढ़ा, तेरी याद उतनी आई,
नाप-तौल कर, न कम, न ज्यादा उतनी ही आई। 
ज़ुल्म बढ़ता रहा, साज़िशें बेतरतीब बढ़ीं, 
मौन के इस दौर में तेरी याद बेहिसाब आई।

ज़ुल्म-ओ-सितम के दौर में दर्द फ़ुग़ाँ हो गया, 
फुग़ाँ-ए-शौक़ में मरहम तेरी याद हो आई।
 दीद के क़ाबिल न सही, दीद-ए-इश्तिहार सही,
 यादों से खाली दिल में, तेरी याद बेहिसाब आई।

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