हमने देखे हैं उनके हुस्न की ताबीर पे रंग सभी,
बस खामोशियों के रंग न समझ पाये हम कभी।
प्रहेलिका जो गुफ्तगू के आगाज़ कर दे फिर से
इल्म-ए-जज्बात उनके, न समझ पाये हम कभी।
यूँ खुद को खामोशियों में कैद कर बैठे हो क्यों
कद्र-ए-जहां लुटाते थे तुम भी हम पे कभी
आज उन निशानियां-ए-गुलिस्तां पे बैठे हो क्यों
खिदमते- हिदायत थे जिनके तुम कभी।
न कर ऐ परवरदिगार इन्तेज़ार-ए-परस्तिश-बेआबरू
संगम के वास्ते चुने जज़्बात अभी बाकी हैं सभी
ईद के चाँद पे रोजा टूटा करते हैं मौला जानते हो ये तुम भी
बस ईद के चाँद वो मेरे दिखते नही कभी
ये इंतेज़ार-ए-बहार किसी रोजा से कम तो नही।
किस पल टूटेंगे ये रोज़ा इन्तेज़ार के
बस ये न जान सके हम कभी
देखे थे हमने उनके हुस्न पे जो रंग सभी
दीदार-ए-जश्न झलक की हसीं कल्प तो नही।
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