रणभेरी
—वृहद
भूमिका
यह कविता नहीं, चेतना की गूंज है। यह शब्द नहीं, शहीदों की अग्निशिखा हैं। यह आवाज़ है उन सपूतों की जो पहलगाम की घाटी में बलिदान हुए। यह अपील है हर भारतवासी से—कि अब मौन नहीं, जागरण हो। यह युद्ध किसी धर्म या मज़हब से नहीं, बल्कि उस विकृत मानसिकता से है, जो भारत की आत्मा पर आघात करती है।
श्रद्धांजलि
उन वीरों को नमन—जो वादियों को अपने रक्त से सींच कर अमर हो गए। ये कविता उन्हें समर्पित है।
भाग 1: रण की पुकार
याचना नहीं अब रण होगा,
जीवन-जय या मरण होगा।
छुप ले चाहे जितना तू मुजाहिद,
कायरता तेरी, वादियों में दफ्न होगा।
छुप ले, फिर ले, बन के तू मुसाहिब,
तेरा सर कलम कर इतिहास लिखेंगे।
तेरी बर्बादियों से, वादियाँ आबाद होंगी,
अब जिहादी सपने चिता में धू-धू होंगे।
जब-जब जिहाद का नारा होगा,
पैरों तले कुचला अंजाम तुम्हारा होगा।
छुप लिया तू बिल में, आस्तीन के साँप,
अधर्म के, विध्वंश-विनाश का नारा होगा।
शमशीरें अब आरती बनेंगी,
हर शहीद की वाणी गूँजेगी।
तेरी हर चाल को देखेगा भारत,
अब राष्ट्र-चेतना ना बूझेगी।
भाग 2: जन-जागरण का शंखनाद
जागो इस देश के सपूत वीरों,
जागो इस देश के धरोहर शमशीरों।
जागो, मिट्टी की सौगंध पुकारती,
जागो, राजपूत, मराठा, अमर कीर्ति वीरों।
उठो गगन को फिर चीरो खड्ग से,
उठो गूंजे रणभेरी शिव-संभु रथ से।
उठो जहाँ तपे, लहू बहे जहाँ,
उठो सीना तान, युद्ध दो लपट से।
यह गीत नहीं, यह हुंकार है अब,
यह शौर्य की अखंड पुकार है अब।
जो बने शरणस्थल अधर्म के लिए,
उनका भी अब पराभव-संहार है अब।
भाग 3: माँ भारती की शपथ
उठो, कि पुलवा-पहल न हो फिर इस देश में,
उठो कि शत्रु छुपा, देश में कायरता के भेष में।
उठो रण पुकारती, करने को फिर एक इंकलाब,
उठो, जवानों, उठो नादानों, पूजित करने धर्म देश में।
ना सहन की भाषा अब काम आएगी,
अब तो शस्त्र ही शांति को समझाएगी।
हर पाक कपट का नक़ाब उतरेगा,
अब चिंगारी ज्वाला बन छा जाएगी।
जहाँ मज़हब बना है अब मौत की ढाल,
वहाँ धर्म नहीं, है अंधता का जाल।
उठो, ओ सपूतों, फाड़ दो ये आवरण,
कि भारत बने फिर तेजस्वी, भाल।
माँ भारती, पहलगांव से है पुकारती,
निर्दोष विहारी, लाशें हैं चितकारती।
वादियों में मौसमों में सघन नाराज़गी,
स्वर्ग धरा की, सिंचित लहू से, है कराहती।
भाग 4: शुद्धि और संहार
वेदों का स्वर फिर से उठेगा,
गंगाजल से शस्त्र पवित्र होगा।
गद्दारों के ख़ून से सिंचित होगी धरती,
देश के भक्तों में विश्वास अमिट होगा।
ना अब छल चलेगा, ना शरण मिलेगी,
सत्य की जय-घोष नगर-नगर बजेगी।
तू डर, तू थर-थर काँप अब,
पाप की जड़ पे प्रहार सजेगी।
कभी जो आँधी बन बहे थे तुम,
अब राख बन उड़ जाओगे।
जो मौत बाँटते फिरते थे सदा,
अब उसी मौत में खो जाओगे।
समापन: नव-समर्पण
रण की यह रचना अब मंत्र बन गई है,
शब्दों की नहीं, यह अस्त्र बन गई है।
जो इसे सुने, वह मौन ना रहे,
यह वाणी अब युग-धर्म बन गई है।
~ वृहद