poet shire

poetry blog.

Thursday, April 10, 2025

वृहद की चिट्ठी

 (एक रूबाईनुमा कविता)

धूप ने चिट्ठी लिखी दीवारों पर,
नरऊँ-गेरूआँ पट सजा दीवार पर।
तेरे भीगे गेसुओं के कुछ छींटें थे,
सुबह ताज़गी ले, प्रांगण की दीवार पर।

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फिर शाम ने सोने की चादर बिछाई,
तेरी याद जैसे तपकर लिपट आई।
अंजुमन में जो गुज़रे एहतियात-ए-मुलाक़ात,
दीवार पर सज गई बेताब लम्हों की परछाईं।
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- वृहद

(दिनांक: 6 अप्रैल 2025)

स्थान: यादों की दीवार के सामने बैठा मन

Wednesday, April 9, 2025

नारी – शृंगार और सौंदर्य

लेखन: वृहद

बिखरे कुंतल, उन्मुक्त है नारी,
पुलकित अधर, मुस्कान आभारी।
उन्नत उरोज, श्वेत तन रज धारी,
लसद-कटि, संग लगे वो न्यारी।

नैनन से जो देखे नारी,
हिए में उतरे चले कटारी।
बालखावत अदा सुकुमारी,
चंचल गति, मृदु छवि प्यारी।

नाज़ुक कलियाँ, कंगना भारी,
अंग-अंग में शोखी सारी।
धीमे बोलत फूल बिसारी,
चलत चपला, लहर पखारी।

मंद हँसी, चंद्रिका छा री,
नूपुर प्रीत की राग सुना री।
पथ-पथ चंपा चून बिछा री,
पग पैजन संग, फाग लुटा री।


काव्य टिप्पणी:
यह कविता नारी सौंदर्य के उस पक्ष को चित्रित करती है, जहाँ शृंगार आत्मा की भाषा बन जाता है। वह केवल एक दृश्य नहीं, अपितु अनुभूति है — जीवन, राग, और रस का आलंबन। यही नारी, हमारे आगामी महाकाव्य की प्रेरणा भी है।

तारीख़ों के दरमियाँ... घर?

 

ग़ज़ल

तख़ल्लुस: वृहद
रदीफ़: "घर बसा लो"
क़ाफ़िया: रही है / कैद में / चलती है / मगर / गए
बह्र: मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन 


ज़िंदगी कोर्ट की तारीख़ों में साँसें ले रही है,
ज़ुल्मत-ए-ख़ल्क़ तो देखो, कहते हैं "घर बसा लो"।

घर की जमानत है तारीख़ों की कैद में,
बरकत-ए-जमाअत तो देखो, कहते हैं "घर बसा लो"।

दो तारीख़ों के दरमियाँ बस साँस चलती है,
ठौर-ठिकाना नहीं, और हुक्म है—"घर बसा लो"।

चिता पे ज़िंदगी सिसकती रही मगर,
तमाशबीन ये कह गए—अब तो "घर बसा लो"।

'वृहद'! हर इक दरख़्त में जलती हैं कुछ उँगलियाँ,
छाँव भी मांगी तो कहते हैं—"घर बसा लो"।

'वृहद'! अरमान सारे तारीख़ों में घुल गए,
अपनों का शोर है, कहते हैं—"घर बसा लो"।


— वृहद



Sunday, April 6, 2025

खुश रहने का राज़ यही है,



खुश रहने का राज़ यही है,
जियो आज में, बात यही है।

न भूत खींचे आंधी-जंजीरें,
न कल की यादें दिल को घेरें।
जो बीत गया, वो स्वप्न हुआ,
जो पास है बस, वही अपना ।

भव्य स्वागत किसका करोगे,
जब आज में ही नहीं जीयोगे?
स्वर्णिम कोई आने वाला कल नहीं,
स्वर्णिम पल है, जो संग खड़ा यही।

देखो, अवलोकन कर के,
करने को क्या है,अभी सबसे जरूरी
भीड़ जाओ और जी जाओ, बन सुरूरी। 

की, खुश रहने का राज़ यही है। 

~वृहद



Saturday, April 5, 2025

The Image of Us

It was all the image we painted in our courtship —
A fleeting sketch of whispers and warmth,
And now, that’s all that’s left of you and me,
Etched in the quiet corners of my soul.

Today, you are someone else,
And I — a stranger to the one I used to be.
But the image of you, the one you carved in me,
Lingers — soft, stubborn, and unyielding.

A journey of just a few steps,
Yet it stretched across my heart like an endless road.
And now this memory overshadows me,
Gives me something — and takes away everything.

But tell me this — was it ever truly love,
This ache, this longing that remains?
Do I miss you, or the image I wove —
Of who you were, and who I hoped you’d be?

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