This blog is dedicated to the poetry from my tragedies, experiences, these events have let flow my emotions into the stream of poetry...
poet shire
Thursday, February 27, 2025
Anomalies
"वो आख़िरी बात: जुदाई का वो लम्हा जो हमेशा के लिए याद बन गया"
वो तेरी कही आख़िरी बात,
वो तेरा हाथों में मेरा हाथ,
दिल्ली की सड़कों पे ऑटो में,
हमारा गुज़रा आख़िरी साथ।
और तेरी कही वो बात,
मुझे तन्हा कर गई...
उस रोज़ मैंने जाना,
आंखों में भी समंदर बसते हैं—
मन की माया छलने को बेताब बैठी थी,
कुछ होश था, कुछ बेहोशी थी,
और साथ में तुम भी थीं वहीं,
मेरे हाथों में अपना हाथ लिए।
वो सड़कें, हां वो सड़कें,
धुंधली सी वो सड़कें,
जाने क्या आंखों से छीन गईं,
कुछ होश रहा, कुछ बेहोशी सी थी,
कुछ याद रहा तो बस...
वो तेरा हाथों में मेरा हाथ,
वो दिल्ली की सड़कों पे ऑटो में,
हमारा गुज़रा आख़िरी साथ,
और तेरी कही वो बात,
मुझे तन्हा कर गई...
अभी कल की तो बात थी,
जब हमारी पहली मुलाक़ात थी,
अंजान शहर का मुसाफ़िर,
तेरे दर पे आया था,
कहने को थी कोई बात,
जो अधूरी सी रह गई।
और जो कुछ बाक़ी रहा—
वो तेरा हाथों में मेरा हाथ,
वो दिल्ली की सड़कों पे ऑटो में,
हमारा गुज़रा आख़िरी साथ,
और तेरी कही वो बात,
मुझे तन्हा कर गई...
उस रोज़, हां उस रोज़,
हाथ छूटने को राज़ी न थे,
एक वायदे पर जिए थे,
वायदे टूटने को थे।
जैसे-जैसे मंज़िल करीब आई,
मन में रह-रह कर सितम का सिलसिला बना,
खाली होते मंजरों में जो बाक़ी रह गया—
वो तेरा हाथों में मेरा हाथ,
वो दिल्ली की सड़कों पे ऑटो में,
हमारा गुज़रा आख़िरी साथ,
और तेरी कही वो बात,
मुझे तन्हा कर गई...
वक़्त-ए-रुख़्सत की घड़ी जो आई,
आंखों में था अंधियारा सा छाया,
सफ़र-ए-रुख़्सत में अश्कों की सरिता,
जो चुपचाप बहती चली आई।
उन अश्रुसज्जित आंखों को कहनी थी कोई बात,
जो फिर अधूरी ही रह गई।
और जो साथ रह गया—
वो तेरा हाथों में मेरा हाथ,
वो दिल्ली की सड़कों पे ऑटो में,
हमारा गुज़रा आख़िरी साथ,
और तेरी कही वो बात,
मुझे तन्हा कर गई...
और वो वादा जो अधूरा रह गया।
Wednesday, February 26, 2025
बुझते अलाव की चिंगारी
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बुझते अलाव की चिंगारी सी,
कुछ राहत है तुम्हारी यादों में।
बोलती हैं तस्वीर भी तुम्हारी अकसर
जो तुम कभी चुप सी हो जाती हो,
जाड़े की धूप भी न हो कभी तो
कांपते लफ्ज़ संभल जाते हैं इन्हें देख कर।
Monday, February 24, 2025
एक सुबह ऐसी भी हो
एक ख़ुशी सी चढ़ती,
और रुख़सार पर खिल जाती थीं
ख़ुशियों की सिलवटें।
उन सिलवटों से बनीं हल्की हिलकोरें,
सुरमई और कुछ खोए-से लगते थे,
और आँखें… हाय, वो झुकी हुई आँखें,
शर्मीली अठखेलियाँ लेती थीं।
नज़ाकत बन के एक सुबह,
कभी यूँ हम पर गुज़री थी,
उन दिनों जब हमारी बातें हुआ करती थीं,
सुबह कितनी हसीन हुआ करती थी।
दिली चाहत भर रह गई —
कि फिर एक सुबह ऐसी भी हो…
Sunday, February 23, 2025
फ़रमान-ए-इश्क़
आतिशी बाज़ियां दिल करने लगा,
आज फिर आपने जो गुनगुनाया।
महफ़िलों में रौनक है आपके होने से,
ये सफ़र इतना भी तन्हा न रहा अब।
गुलबांग-ए-मुहब्बत में सजी एक वफ़ा,
आंधी सी चली आज।
लुट गए गुलफ़ाम-ए-मुहब्बत की हंसी उड़ाने वाले,
और हम फ़कीरी में शहज़ादे हो गए।
फ़रमान-ए-इश्क़ की तकीद तलब कर,
महरूमियों की फ़कीरी में न बसर हो।
इत्तिला-ए-दिल-ए-दिल्लगी,
फिर नाचीज़ न हो।
Saturday, February 22, 2025
लख-लख बधाइयाँ जी
ये दुनिया सतरंगी हो गयी है।
ये आपकी खिलती हुई हँसी ही तो है, जो फूलों में खिलती है।
ऋतुओं में बसंत हैं आप, जो एक बार मुस्कुरा दें
तो खिल जाते हैं, मुरझाने वाले फूल भी सभी।
यूँ ही खिले-खिले से रहिये सदा, यही है रब से दुआ,
ये भी ले लीजिये मेरी सदा, हंसते-हंसाते रहिये,
यूँ ही खिलते, खिलाते, खिलखिलाते रहिये।
चंचलता-नज़ाकत की, है आपसे ही तो सजी,
भंवरा आवारा भी, गुंजन जो करे वन-उपवन में,
वो भँवरे को मतवाली करती सुगंध, आपकी ही तो है।
ये चाँद, ये चाँदनी, ये नज़ारे हसीन, सब मेहरबानियाँ ही तो हैं, बस आपकी।
बहुत शुक्रिया जी जो आप आये, संग अपने बसंत को लाये, हर दिन को त्योहार बनाये।
तुम्हारा, बस तुम्हारा।
जो कुछ पहले, हाल भी पूछा होता,
जो ये क़यामत की बात न होती,
सुबह तो होती रही है,
शामें भी ढलती रही हैं,
क़यामत भी तो कोई,
हर सफल प्रेम कहानी,
क्या तुम्हारी और मेरी भी कहानी भी,
अंजाम– ए–फ़िक्र की बात,
इस दिल को तुम्हारी तलाश,
न तुम पूछो कभी,
न मैं जानूँ कि मैं कैसा हूँ,
ये चराग़-ए-इश्क़ से रोशन दिल,
ये शम्मा यूँ ही, तेरे नाम की जलती रहेंगी।
तुमसे मिल कर तुम में मिल चुका हूँ
तुम्हें जानकर तुमसा ही हो चुका हूँ,
अब कोई ख़ुद को कितना ही जाने
अब कोई ख़ुद को कितना ही पहचाने।
कोई मुझसे मेरा नाम पूछे, ज़ुबाँ पे तेरा नाम आ जाता है,
कोई मुझसे मेरा पता जो पूछे, हरसू तू ही तू नज़र आता है।
मैं जबसे तुम हो चुका हूँ,
ये दिन-दुनिया, गीत-ग़ज़ल
सब तुमको ही समर्पित कर चुका हूँ,
मेरा मुझमें कुछ नहीं,
सब कुछ तुम को अर्पण कर चुका हूँ।
तुम चाहो तो,
हाल-ए-दिल न पूछो कभी पर,
इस धड़कते दिल को
तुम्हारी, तुम्हारी ख़ुशियों की परवाह है, हमेशा रहेगी।
तुम्हारा, बस तुम्हारा।
कुछ देर और ही सही
कुछ देर और ही सही, मेरे ख़्वाबों में तू आती रहेगी।
फिर जाने कब कोई नई ज़िंदगी मिले,
फिर जाने कब तेरे होने की कोई ख़्वाहिश करूं।
क्या जाने फिर से हसरतें कैसी होंगी,
क्या जाने अगले जन्म में तू याद रहे न रहे।
क्या ऐसे ही शुरू हुई थी अपनी कहानी,
मिलके भी न मिले, क्या बस दो पल की थी ज़िंदगानी।
फिर जो तुझे कोई आरज़ू हो,
मेरी यादों से दिल बहला लेना।
मैं संग चलूं या न चलूं,
तेरी ज़िंदगी के सफ़र में,
मेरे जज़्बों को दिल में कहीं, किसी कोने में,
सहलाए रखना।
जब जब तेरा दिल मुझे याद करेगा,
ये दिल भी थोड़ा धड़क लेगा,
मुझे मेरे ज़िंदा होने का एहसास,
और वक़्त के दिए ज़ख़्मों को,
थोड़ी राहत तुझे, थोड़ा मुझे भी राहत दे जाएगा।
वस्ल-ए-यार की आरज़ू,
शायद आरज़ू ही रह जाए।
पर ये आरज़ू ही आबाद रखना,
मुझे देखा हुआ,
कोई हसीन ख़्वाब समझकर,
मुझे अपने दिल में आबाद रखना।
पिया मिलन की बात
हिये संजोये तस्वीर आपकी, ऐसा अपना साथ।
ख़िज़ा खिली, हुई सुखी पंखुड़ी गुलाब
आते जाते सामनो -
छेड़ी जो तुमने पिया मिलन की बात।
मेरी रज़ा - मेरी सज़ा
ख़ुदी को कर बुलंद इतना
कि हर तक़दीर से पहले,
ख़ुदा बंदे से पूछे —
“बता तेरी रज़ा क्या है?”
और मैं ख़ुदा से मांग लूँ —
"ऐ ख़ुदा, मुझे चंद लम्हे दे,
कि उनकी नज़रों की सरगोशियों में डूब जाऊँ।
सुना है, उनकी नज़रों से एक राह गुज़रती है —
जो सीधा उनके दिल तक जाती है।
वो दिल ही मेरी जन्नत है,
वही मेरी तक़दीर लिख दे।
आज मेरी ख़ुदी को इतना बुलंद कर दे —
कि इश्क़ भी सर झुका दे,
और तक़दीर भी मेरी मोहब्बत से सज़दा करे।
यही मेरी रज़ा है — यही मेरी सज़ा कर दे।
Friday, February 21, 2025
"माया एक आईना"
"माया चेतना का आईना है, जिसमें वह स्वयं को प्रतिबिंबित करती है।"
शुन्य में जब मौन बसा था,
चेतन का कोई नाम न था।
अस्तित्व अकेला जाग रहा था,
स्वयं का भी पहचान न था।
फिर जन्मी एक छवि अनोखी,
अदृश्य सा एक खेल रचा,
चेतना ने स्वयं को देखन को,
माया का दर्पण रच डाला।
तेरे जाने के बाद
ले देख, तेरे जाने के बाद,
मुझमें "मैं" ज़िंदा न रहा,
ले देख, तेरे जाने के बाद,
मुझमें मुझ-सा कुछ न रहा।
यादों की अशर्फ़ियाँ बिखरीं,
हर एक पर तेरा नाम लिखा,
कश्तियाँ-ए-सफ़र बेजान पड़ीं,
बेरंग, बेआब, सुनसान पड़ीं।
शिकारा अब भी लहरों पे है,
मगर उसमें कोई आवाज़ नहीं,
एक चेहरा बैठा दूर कहीं,
पर आँखों में अब वो राज़ नहीं।
तू देख, तेरे जाने के बाद,
रास्ते भी भटके-भटके से हैं,
हवा भी ठहरी लगती है अब,
साया तक मेरा तनहा खड़ा है।
दिन ढलते हैं, पर शाम नहीं,
चाँद भी बुझा-बुझा सा है,
तेरी यादों की धूप ऐसी,
कि साया भी जलता दिखता है।
तू कहती थी, "वक़्त बदलेगा,"
मैं आज भी उस वक़्त में हूँ,
तेरा शिकारा बहता गया,
और मैं किनारे रुका ही रहूँ।
एक तेरे जाने के बाद...
सिर्फ़ एक तेरे जाने के बाद...