"माया चेतना का आईना है, जिसमें वह स्वयं को प्रतिबिंबित करती है।"
शुन्य में जब मौन बसा था,
चेतन का कोई नाम न था।
अस्तित्व अकेला जाग रहा था,
स्वयं का भी पहचान न था।
फिर जन्मी एक छवि अनोखी,
अदृश्य सा एक खेल रचा,
चेतना ने स्वयं को देखन को,
माया का दर्पण रच डाला।
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